नोट - पॉडकास्ट सुनने के लिए कृपया नीचे त्रिकोण (▶) को दबाये|
Research: Sandip Bhati
Story Writers: Roshani Chouhan, Saloni Koushal, Sandip Bhati
Sound Recording: Aajad Singh Khichi
Sound Design: Aajad Singh Khichi
Sound Mixing: Pradeep Lekhwar
Drawing: Maya Janine
Mentor & Guide: Pinky Brahma Choudhury
सूरज माथे पर आ गया है, दोपहर के बारह बजने को होंगे। अम्मू ने दो-तीन मुट्ठी कोयले तगारी से निकाले और भट्टी में डाल दिए। भट्टी के मुंह को टीन चद्दर के ढक्कन से ढ़ककर अपने भाई को तगारी की ओर इशारा किया। तगारी में कोयले कम हैं, यह देख आवेश थैले में से कोयले के बड़े टुकडे़ निकालकर हथौड़ी से छोटे करने में लग गया। इनके पिताजी नबीबख्स ने बाहर खड़े ट्रैक्टर में लगे हल की एक-एक पंजी खोलकर ठीक अम्मू के सामने रख दी, और बोले ”इनकी धार बनानी है भट्टी जल्दी गर्म कर, आज ही देनी है।” नबीबख्स भैया के हाथों को देखकर पता लगता है कि इन्होंने अपनी जिंदगी का काफी समय भट्टी के पास गुजारा है। कोयले की चिंगारियों ने हाथों पर कई दाग-धब्बे छोड़ दिए हैं।
घर के आँगन में टिन शेड के नीचे कूलर के सामने बिछी हुई चारपाई पर आवेश के दादाजी आराम कर रहे हैं। उनकी हथैली इस बात की गवाह है कि उन्होंने कई वर्षों तक घन चलाया होगा। 4 से 5 बकरियाँ अपना पेट भरने के लिए पत्तियाँ चबा रही हैं। घर के अंदर मुमताज दीदी सिलाई कर रही हैं। वे कई सालों से सिलाई करतीं आ रहीं हैं, आज-कल बिना चश्मा लगाए सुई में धागा भी नहीं डाल पातीं। घड़ी में समय देखकर दीदी नमाज अदा करने अंदर कमरे में चली गईं। बायीं ओर के कमरे में आवेश की पत्नी अपने लगभग तीन साल के बच्चे को बहला फुसलाकर खाना खिलाने की जद्दो जहद में लगी है। सभी अपने-अपने काम में मशगूल हैं।
भटासा गाँव दो हिस्सों में बटा हुआ है। रोड के एक तरफ बड़े किसानों ने अपने घर लंबी चौड़ी जगह में फैलाकर बनाए हैं। वहीं दूसरी तरफ, कम जगह में बने मिट्टी की दीवारें और कवेलू से ढ़के हुए, धाड़की धंधे करने वाले लोगों के घर हैं। इनमें से एक घर, मुमताज पति नबीबख्स का भी है।
पूरे गाँव में लोहार की एक मात्र दुकान इन्हीं की है। दराती, खुरपी, बख्खर की पास, कुल्हाड़ी, या फिर खेती से जुड़ा कोई भी सामान पजाना हो, सब यहीं आते है। बोवनी, निंदाई और कटाई के सीजन में नबीबख्स भैया और उनके बेटों को खाना खाने तक की फुर्सत नहीं मिलती। दुकान के बाहर 4-5 ट्रैक्टर खड़े ही रहते हैं, और किसानों का आना-जाना लगा रहता है।
भट्टी पूरी तरह से गर्म हो गई है। अम्मू ने ढक्कन हटाया और अपने पास ही कोने में रखी पंजी को संडासी (चिमटा) से उठाकर भट्टी में डाल दिया। कुछ ही देर में पंजी को सुलग कर लाल होते देख, नबीबख्स भैया बडे बेटे आवेश को इंजन चलाने को कहते हैं। आवेश ने एक हाथ से उसमें हेण्ड़ल लगाया, और ज़ोर-ज़ोर से घुमाने लगा। इंजन चालू होते ही हरे रंग की हैमर मशीन के ठीक सामने नबीबख्स भैया बैठ गए। मुमताज दीदी नमाज अदा करके बाहर आईं और सभी को चाय देकर सिलाई करनें में वापस जुट गईं।
घर पर बाजी हैं क्या? आवाज़ लगाते हुए एक महिला मुमताज दीदी के पास जाकर खड़ी हो गईं l
उस महिला ने थैली से कपड़ा निकाला और मुमताज दीदी को देते हुए बोली।
”बुरका सिलवाना है, परसो लेकर जाऊंगी“
मुमताज दीदी को सिलाई मशीन, उनके अब्बू ने दहेज में दी थी। उन्होंने मायके में ही सिलाई करना सीख लिया था। हैमर मशीन आने से पहले, सिलाई के काम से चार-पांच हजार रूपयों की कमाई घर खर्च के लिए बड़ा सहारा था। ये उन दिनों की बात है, जब दीदी समूह से नहीं जुड़ी थी।
मुमताज दीदी ”बुखारदास प्रगति समूह” की सदस्य हैं। सन् 2009 में दीदी के लिए समूह शब्द नया था। उन दिनों गाँव के ही सुरेश भैया समूह की मीटिंग लेते थे। सुरेश भैया समाज प्रगति सहयोग संस्था में कार्य करते हैं। "समूह में बचत करके उसका चार गुना लोन ले सकती हो। बाजार से पैसा उठाओं तो वो हमें महीने का तीन रूपये या पांच रूपये सैकडे़ के ब्याज दर से मिलता है। वहीं समूह में लोन, महीने का ढेड़ रूपये सैकड़ा ब्याज से मिल जाता है, और हर किस्त लौटाने में ब्याज भी तो घटता जाता है। समूह में लोन का पैसा अपनी सुविधानुसार किस्तों में चुका सकते हो।" इन सबका गणित करके सुरेश भैया ने दीदी को समझाया। उधार के बिना तो गुजारा ही नहीं होता, कुछ भी काम करो पैसा तो बाजार से उठाना ही पड़ेगा ना। दीदी सोचने लगी और अपने पति से सलाह-मशवरा करने के बाद सुरेश भैया की बातों पर विश्वाश करके, वे 15 सदस्यों के समूह में जुड गईं। आज समूह में इन्हें बारह साल हो गए हैं।
भैया ने सुलगती पंजी को संडासी (चिमटा) से उठाया और हैमर मशीन के बीच में रख दी। अपने एक पैर से मशीन की रफ्तार बढ़ाई जिससे पंजी में लगातार चोट पर चोट पड़ने से उसकी धार बनने लगी। जहाँ धार थोड़ी टेड़ी जाती वे हाथ से हथौड़ा मारकर उसे ठीक कर देते। जब हैमर मशीन नहीं थी तब इन्हें एक पंजी की एक साइड की धार बनाने में ही एक घण्टा लग जाता था। अगर घन चलाने के लिए आवेश न हो, तो उस दिन काम बिल्कुल ही नहीं होता था।
समूह से जुड़ने के कुछ साल बाद दीदी के बचत समूह में गैस चूल्हा और टंकी खरीदने की चर्चा होने लगी। दीदी ने झट से हाँ भर दी। यह उनका कई सालों का सपना था, जो वे सोच नहीं सकती थी। सिलाई करना, घर का काम और लकड़ी की भी व्यवस्था करना आदि झंझटों से दीदी परेशान हो गईं थीं। भैया और दीदी को हर आठवे दिन, गाँव के पास के जंगल में खाना बनाने के लिए लकड़ी लेने जाना पड़ता था। उस दिन दीदी सिलाई बिल्कुल ही नहीं कर पातीं थीं। ऊपर से बारिश के दिनों में चूल्हा जलाना दीदी के लिए मुश्किल होता था, क्योंकि गीली लकडियाँ धुआं छोड़ती थीं।
”बुखारदास” प्रगति समूह खातेगाँव प्रगति समिति के अंतर्गत आता है। कई समूहों से 300 सदस्यों ने संकुल स्तर पर गैस चूल्हा और टंकी की मांग रखी। एक साथ थोक में खरीदने से कम दाम पर गैस कनेक्शन और मजबूत चूल्हा मिल जायेंगे। कई गैस एजेंशियों से पता कर समिति सदस्यों ने 2180 रूपये में ही अच्छी कंपनी से गैस चूल्हे दिला दिए, जो बाजार में एक लगभग 2500 रूपये तक का पड़ता।
मुमताज दीदी ने घर में से लकड़ी को सबसे पहले हटाया, फिर धुंआ निकलने के लिए रसोई घर में जो कवेलू छोड़ रखे थे, उन जगहों में भी कवेलू लगा दिए। गैस को किस कोने में रखना, कितना लंबा स्टेण्ड़, एक ही फर्श या फिर डबल फर्श का, उसके नीचे दाल मशालों के डिब्बे भी रख सकेंगे एक दो दिनों में, दीदी ने डबल फर्श का गैस स्टेण्ड़ बनाया। सदस्यों को गैस कनेक्शन का खर्च, लोन के रूप में ही दिया गया था। जिसको मुमताज दीदी ने अपनी सुविधा अनुसार पाँच माह की किस्तों में चुका दिया था।
ट्रैक्टर की लंबी आवाज सुनकर भैया समझ जाते हैं, बोवनी की मशीन (सिड्रिल) में बेल्डिंग करवाने के लिए ग्राहक आया है। भैया अंदर आते हैं और आवेश को बेल्डिंग करने को कहते हैं। आवेश ने बेल्डिंग रॉड निकाली और खूँटी पर टंगा काला चश्मा हाथ में लिया और बाहर गया। ट्रैक्टर को साइड में खड़ा करवा के आवेश बेल्डिंग करने के लिए बैठ गया।
आज से करीब 10 साल पहले इनकी दुकान पर गिने-चुने ही लोग आते थे। हैमर मशीन नहीं होने से जो ग्राहक आते भी थे वो ऐसे ही वापस चले जाते थे। घर आते ग्राहकों को खाली हाथ वापस न भेजकर, अपना धंधा बढ़ा सकें इसलिए दीदी ने समूह से लोन लेने की सोची। समूह से 40,000 रूपये लोन की मांग की और सभी परिवार के सदस्यों ने चर्चा कर 2000 रूपये महीने की किस्त से लोन वापस करने के लिए राजी हुए। नबीबख्स भैया का लोहार का मजबूत काम पूरा गाँव मानता था, और पूरे गाँव में लोहार की एक दुकान इन्हीं की थी। समूह सदस्य भी सहमत थे मशीन आने से इनका धंधा बढे़गा ही और वो किस्त भी समय से दे पायेंगे।
लोन मिलते ही मुमताज दीदी और अम्मू हैमर मशीन के लिए दुकान में जगह बनाने में जुट गए। दोनों माँ बेटे ने दुकान का हर कोना देखा और बीच में मशीन रखना तय हुआ। एक दिन नबीबख्स भैया और आवेश हरदा जाकर, नई हरे रंग की हैमर मशीन खरीद लाए। जैसे ही गाँव में, और आस-पास के किसानों तक भैया की इस नई मशीन के बारे में बात पहुँची तो ग्राहकों की भीड़ भी बढ़ने लगी।
सुबह-सुबह 2 से 3 ट्रैक्टर आते है और सभी ट्रैक्टरों में बोवनी की मशीन (सिड्रिल) लगी हुई हैं। उनकी पंजी में धार बनानी है। भैया पंजी खोलते हैं, और आवेश को फटाफट इंजन में डीजल डालने को कहते हैं। एक किसान अपने हाथों में चारा निकालने वाली सरपटे की पास लेकर आता है, उसमें भी धार बनानी है। सभी को काम जल्दी खत्म करके देना है, इसलिए दोनों बाप-बेटे आपस में काम बाट लेते हैं। भैया बैठे नई हैमर मशीन के सामने और आवेश लगा एक-एक पंजी को भट्टी में गर्म करने। आवेश भट्टी में से पंजी निकालकर अपने पिता को देता और भैया हैमर मशीन के बीच में रखकर उसकी धार बनाते। भैया मशीन की रफ़्तार बढ़ाते हैं, उन्हें देख आवेश भी सरपटे की पास भट्टी में डालकर और कोयले डालता है। एक के बाद एक पंजी गर्म होती जा रही है साथ में पास भी गर्म होने लगी है। भैया हैमर मशीन की ठक-ठक की अवाज में मस्त मगन होकर धार बनाए जा रहे हैं। तभी अचानक सरपटे की पास उछल कर भैया की जांघ पर गिर जाती हैं। एकदम से पूरा काम रूक जाता है, आवेश आननफानन में अपने पिताजी को अस्पताल लेकर जाता है।
अब मुुमताज दीदी पर घर चलाने की, और दुकान के काम की जिम्मेदारी आवेश पर आ गई। दुकान में काम की व्यवस्था पूरी तरह से डगमगा गई। भैया के साथ ऐसा होने से ग्राहकों में भी कमी आने लगी। उस स्थिति में परिवार वापस से, दीदी की सिलाई पर निर्भर हुआ। अम्मू भी स्कूल से आने के बाद अपने भाई का काम में हाथ बटा देता था। इधर मुमताज दीदी, सिलाई करने के साथ-साथ भैया का भी ध्यान रखती कि गोली-दवाई खाना न भूल जाएं। जांघ जलने से भैया कुछ महीनों तक काम ही नहीं कर पाए।
देखते ही देखते दीदी की छोटी बेटी जूली के निकाह की उम्र हो गई। दीदी ने समूह मीटिंग में निकाह के लिए लोन का प्रस्ताव रखा। सदस्यों के बीच आपस में चर्चा होने लगी, शादी के लिए लोन? आपको तो पता ही है कि समूह में शादी के लिए लोन को बढ़ावा नहीं देते। धंधा बढ़ाना हो, बच्चों को पढ़ाना हो, इलाज के लिए या फिर खेती का कर्ज चुकाना हो, इन सबके लोन के लिए समूह में कोई आपत्ति नहीं है।
मुमताज दीदी को निकाह के लिए लोन लेने की जरूरत ही नहीं पड़ती। पर जो पैसे जूली के निकाह के लिए बचाए थे, वो उनकी सास के इलाज में खर्च हो गए। दीदी की सास का कैंसर जब आखिरी पड़ाव पर था, तभी पता चला। कुछ दिनों बाद ही उनका इंतकाल हो गया। उनके चेलूम (नुक्ता) कार्यक्रम करने में भी पैसा लगा। इस कारण अब दीदी को समूह में निकाह के लिए लोन का प्रस्ताव मजबूरी में रखना पड़ा।
समूह से लोन नहीं मिलने पर उनका परिवार बाजार से पैसा उठाने के बारे में सोचता है। जब यह बात समूह के सदस्यों को पता चलती है। तब अगली समूह मीटिंग में सदस्यों ने दीदी को समझाया कि सेठ साहूकार महीने का तीन से पाँच रूपये सैकड़े का ब्याज लेंगे, और पूरा पैसा उन्हें एक मुश्त में चुकाना पडे़गा। समूह सदस्य दीदी को काफी शर्तें और बातें समझाते हुए बोले -
“जीजी इस बात का ध्यान रखना कि दिखावे के चक्कर में अपनी क्षमता से ज्यादा निकाह में फिजूल खर्च मत कर देना, लोन की रकम तोल-मोल से ही ले जितना भर सकें।“ दीदी के लोन चुकाने का पुराना रिकार्ड और परिवार की आमदनी को देखते हुए सदस्यों ने उनका लोन प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
मुमताज दीदी अपने सिलाई के हुनर से परिवार का सहारा तो थी हीं, पर अपने सही निर्णय और समूह के बल-बुत्ते पर परिवार के धंधे को आगे लेकर भी गईं। भैया अपनी दुकान के हर औजार को बडे़ प्यार से संभालकर रखते है। हैमर मशीन को तो वे बड़े चाव से रोज़ाना साफ करते है, उसमें तेल ग्रीश डालना कभी नहीं भूलते। उनके लिए हैमर मशीन परिवार का हिस्सा है। उनके शब्दों में कहें तो एक और बेटी है, जो हर दम उनके सुख-दुःख में साथ खड़ी रहती है।
सभी पंजी में दोनों तरफ की धार बन गई, भैया और अम्मू पंजी कसने के लिए बाहर जाते है। सारी पंजी कस दी और 700 रूपये मुमताज दीदी को दे दिए। हैमर मशीन की वजह से आज वे साल में एक से ढेड़ लाख रूपये की कमाई कर लेते हैं।
अब दीदी और भैया का सपना है कि समूह से लोन लेकर दुकान के लिए बड़ी कटर मशीन के साथ वो हर जरूरी सामान खरीदें, जिससे आवेश के लिए जीवन भर की कमाई की जड़ें मजबूत हों। अम्मू की कॉलेज पढाई का खर्च भी, दुकान की कमाई से निकल सके।
आज मुमताज दीदी के समूह में, समूह की पाँच साल की कमाई बटेंगी। यह कमाई सदस्यों द्वारा लिए गए लोन के ब्याज की है, जिस पर समूह के सारे सदस्यों का हक होता है। दीदी को ड्रिल मशीन लाने में जो पैसे कम पड़ रहे थे, आज शायद वो पूरे हो जाएं।
Comments