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सारांश - सुलगाँव की रियाली दीदी की बकरियाँ ही उनकी आय का एकमात्र स्रोत हैं क्योंकि उनके पास खेती सिर्फ़ खाना पूर्ति के लिए ही है। ऐसे में बकरियों का बीमार होना उनके लिए चिंता का कारण बन जाता है। जंगल के बीच बसे गाँव में कई बार समय पर इलाज न मिलने से लोगों के बकरे- बकरियाँ मर भी जाते हैं। वहां पशुधन विकास कार्यक्रम ने गाँव के लोगों की मदद कर उनकी आमदनी को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।
Research, Voice and Art Design: Varsha Ransore
Story Writers: Varsha Ransore, Aajad Singh Khichi, Sandeep Bhati
Sound Recording: Sandeep Bhati
Sound Design: Varsha Ransore, Pradeep Lekhwar
Sound Mixing: Pradeep Lekhwar
Mentor & Guide: Jinendr Kumar Jain
Creative Support: Onsai Foundation
Financial Support: Azim Premji Foundation
कहानी पढ़ें / Read The Story
आज कड़ाके की ठण्ड़ है। मैं सुबह-सुबह ही सुलगांव के लाइनपुरा मुहल्ले की रियाली दीदी से मिलने आई हूँ। उनके घर की दीवार से सटे हुए कोठे में सफेद, काली, भूरी और चितकबरे रंग की बकरियां बंधी हुईं हैं। मुझे देख बकरियों ने मिमियाना शुरू कर दिया। बकरियों की आवाज सुन रियाली दीदी घर का दरवाजा खोलकर बाहर आती हैं।
“नमस्ते दीदी ! आव, बैठो !“
इतना बोलकर वे कोठे में जमीन से दो फीट ऊंचे, लकड़ियों से बने चौपाये से बकरियों को उतारकर बाहर लाती हैं और रोड के किनारे बांस से बनी हुई बागड़ में उन्हें बांधतीं हैं। बकरियों के मिमियाने पर ठण्ड के मारे उनके मुँह से भाप निकल रही है। पच्चीस बकरियों को बांधते-बांधते उनको करीब आधा घण्टा लग जाता है।
दीदी ने अपने एक घर के कमरे को छोटी सी दीवार से दो भागों में बॉटा हुआ है। जिसमें एक तरफ चूल्हा-चौका और लकड़ी की पट्टी पर जमें कुछ बर्तन, वहीं दूसरी तरफ सोने और बैठने की जगह है। पीली मिट्टी से रंगी हुई दीवारों पर फिल्मी सितारों के पोस्टर चिपके हुए हैं। दीदी के दोनों बच्चे बस्ते में किताबें जमा रहे हैं। दीदी मुझे गरमा गरम चाय देकर खाना बनाने में जुट जाती हैं। वे जल्दी-जल्दी घर का काम निपटाती हैं और तेज आवाज में चल रहे टी.वी को बंद कर देती हैं। हम लोग रस्सी और दराती लेकर लगभग नौ बजे बकरियों को जंगल में चराने के लिए चल देते हैं।
सुलगांव के घने जंगल के बीच लाइनपुरा मुहल्ले में बारेला समुदाय की बारह घरों की बस्ती बसी हुई है। बस्ती में अधिकतर घर कच्चे हैं और सभी घरों के आसपास बांस की बागड़ें बनी हुई हैं। दीदी के पति और मुहल्ले के अधिकतर लोग कई तरह के काम करने के लिए लगभग 15 कि.मी. दूर घने जंगल का रास्ता पार करते हुए बड़वाह शहर जाते हैं।
हाथ में दराती और कंधे पर रस्सी टांगे, एक कतार में चल रही बकरियों को आवाज लगाते हुए रियाली दीदी चलती रहती हैं। धीरे-धीरे मुहल्ले के कुछ लोग और दीदियां भी अपनी-अपनी बकरियों को लेकर हमारे साथ शामिल हो जाती हैं। बस्ती से निकल कर बकरियां अलग-अलग झुण्डों में जंगल में चली जाती हैं। वहाँ पर बबूल और अंजन की टहनियों को दराती से काट-काटकर नीचे गिराया जाता है जिसकी पत्तियों को बकरियां बड़े चाव से खाती हैं।
कुछ बकरियों को घनी झाड़ियों की ओर जाते देख मैंने दीदी से पूछा, “इस जंगल में जंगली जानवर भी रहते हैं क्या ?“
बकरियों पर बड़ा ध्यान देना पड़ता है जंगल में शेर और भेड़िये घूमते रहते हैं। कब किसकी बकरी उठा लें, कोई ठिकाना नहीं। बड़वाह से जो लोग मजदूरी करके वापस आते हैं, उनको भी डर लगा रहता है कि कहीं जंगली जानवर उन पर हमला न कर दें, वे भी होशियारी से जंगल पार करते हैं। दीदी ने बताया।
बातों-बातों में पता चला उदयनगर बाजार से इन्होंने बहुत पहले दो छोटे बकरे तीन से चार हजार में खरीदे थे। इनको उम्मीद थी कि ईद तक बकरे बड़े हो जायेंगे और उनकी अच्छी कीमत बीस से तीस हजार रुपयों तक मिल जायेगी। लेकिन बकरियों की जानलेवा “बोरिया“ बीमारी के डर से इनको अपने दोनों बकरे बडे़ घाटे में 3 हजार में ही खटीक को बेचने पड़े।
दीदी बताती हैं “बोरिया“ बीमारी में सबसे पहले बकरियों के मुँह पर फुंसियां निकलीं जिससे उन्होंने खाना-पीना ही बंद कर दिया। उसके बाद उनको तेज बुखार आया और दस्त भी लग गये। साल 15-16 में यह बीमारी पूरे गाँव में बुरी तरह फैल गई थी। किसी के बड़े बकरे मरे तो किसी की गर्भवती बकरियां।
“फिर आपने क्या किया दीदी ?“ बकरी पर हाथ फैरते हुए मैंने पूछा।
“कई तरह की दवा दारुओं से इलाज किया। मुँह की फुंसियों पर तेल हल्दी गरम करके लगाया, बोर की पत्तियों का घोल बनाकर भी पिलाया ताकि उनको दस्त आना बन्द हो जायें, लेकिन किसी भी दवा-दारु से ज्यादा फायदा नहीं हुआ। इस बीमारी से गांव में बकरियां बहुत कम हो गईं थीं।“
दीदी की ऐसी बातें सुनकर मुझे कोराना बीमारी याद आ गई, जब लोग धड़ाधड़ एक के बाद एक कोरोना के शिकार होकर अपनी जान गवां रहे थे।
तभी रियाली दीदी ने कहा, “बस्ती जंगल के बीचों-बीच होने से पशु डाक्टर इधर आते ही नहीं थे। जानवर जब भी बीमार पड़ते थे तो वे इतने कमजोर हो जाते कि उनको बड़वाह इलाज के लिए लेकर जाना मुश्किल हो जाता था। कुछ तो रास्ते में ही दम तोड़ देते थे। जिन्होंने भी बकरियां खरीदने के लिए कर्जा लिया था, वे उसे चुका भी नहीं पाये थे। कर्जा चुकाने के लिए उनको अपने घर के जरूरी सामान और गहने तक गिरवी रखने पड़े थे।“
जब बकरियों का पेट भरने लगा तब रियाली दीदी ने बकरियों के छोटे बच्चे जो घर पर हैं उनके लिए अंजन की पत्तियों का पोटला बांधा और घर की ओर चलने लगीं। मैं भी उनके साथ चल पड़ी। बकरियों के छोटे बच्चे अपनी मां को घर आते देख मिमियाने लगे। बकरियां भी मिमियाते हुए अपने बच्चों को दुलारने लगीं। कोठे में लकड़ी के बने चौपाये पर बकरियां चढ़ जाती हैं, कुछ खड़ी रहती हैं और कुछ बैठ जाती हैं। रियाली दीदी के सिर पर पाला-पत्ती का पोटला देख बकरी के बच्चे खुशी से उछलने लगते हैं, जैसे उनको कोई पंसदीदा खाना मिल गया हो।
कुछ देर बाद बकरियों को बांधते हुए दीदी बोलीं, “पहले तो बकरियों का कोठा जमीन के बराबर ही था। इसमें गर्मी के दिन तो आसानी से निकल जाते थे लेकिन ठण्ड और बारिश में बकरियां नीचे बैठती ही नहीं थीं। गीली जगह में खड़े रहने से उनके खुरों में सड़न होने लगती थी और कीड़े भी पड़ जाते थे। इसलिए हमारे बचत समूह से बनी समिति के पशुधन कार्यक्रम के कार्यकर्ताओं ने यह लकड़ी का चौपाया बनाया है।
“आप बचत समूह से कैसे जुड़ीं?“ खटिया पर बैठते हुए मैंने पूछा।
“तीन चार साल पहले गांव में दो तीन भैया समूह बनाने के लिए आए थे। हमें उनसे ही बचत समूह के फायदे के बारे में जानकारी मिली। हम बस्ती वालों ने सोचा, क्यों न हम मिलकर अपने मुहल्ले का ही एक समूह बनायें ताकि हमें सेठ-बनियों से ज्यादा ब्याज पर कर्जा न लेना पडे़, फिर हम महिलाओं ने मिलकर सन् 2019 में “पराग प्रगति समूह“ बनाया।“ मुझे पानी का गिलास देते हुए वे बोलीं। “
“पशुधन कार्यक्रम गांव में कैसे आया ?“ पानी पीकर मैंने उनसे पूछा।
समूह मीटिंग में पैसों की लेन-देन के साथ-साथ हम महिलाओं ने मीटिंग लेने वाले भैया को बताया गांव में बकरियां या कोई बड़ा जानवर बीमार पड़े तो उसके इलाज के लिए डाक्टर को बड़वाह लेने जाओ और उन्हें छोड़ने भी। कई बार गरज करने पर वे बड़ी मुश्किल से बस्ती में आने को तैयार होते हैं। उनके न आने पर हम बड़वाह मेडिकल स्टोर्स से दवाई लाकर बकरियों को पिला देते हैं। कुछ ठीक होती हैं तो कुछ गंभीर स्थिति में होने से मर भी जाती हैं। बोवनी के समय अगर किसी का बैल मर जाये तो आसमान टूट पड़ता है, मानों घर का एक खास सदस्य चल पड़ा।
बड़वाह से डॉक्टर को इलाज के लिए लाने पर एक बार में ही हजार-पांच सौ रूपये देना पड़ता है। ऊपर से उनके नखरे झेलो वो अलग बड़े डाक्टर जो ठहरे ! हमारी समस्या सुनने के बाद समूह से बनी समिति के पशुधन कार्यक्रम के पैरावेट डाक्टर इलाज के लिए बस्ती में आना शुरु हो गए हैं।
उनके आने से हमारे मुर्गा-मुर्गी, बकरा-बकरी और मवेशियों के इलाज की व्यवस्था हो गई है। पशु डाक्टर से ट्रेनिंग पाकर आसपास के गांव के लड़के ही पैरावेट (डाक्टर) के रूप में काम करते हैं। जब भी जानवर बीमार पड़ते हैं, उसी समय हम उन्हें फोन करके बुला लेते हैं और वे तुरंत आ जाते हैं। अगर हमारे पास इलाज के लिए उस समय पैसा न हों तो भी वे जानवरों का इलाज कर देते हैं। उसका हिसाब-किताब हमारी समूह मीटिंग में पशु हेल्थ कार्ड के माध्यम से हो जाता है। जानवरों की देखरेख, दाना-पानी, कोठे में लकड़ियों का चौपाया बनवाना और हमें अच्छी नस्ल की बकरियां खरीदने में मदद करते है। समय-समय पर टीकाकरण और इलाज की पूरी जानकारी पैरावेट भैया हमें देते रहते हैं।
“अब समूह के डाक्टर आने से बीमारियों की रोकथाम हुई है क्या ?“ मैंने पूछा।
“ये सफेद चितकबरी बकरी पिछले साल बीमार पड़ गयी थी, उठ ही नहीं रही थी तो रात के समय ही समूह के डाक्टर को फोन करके बुलाया। उनके इलाज करने से एक दो दिन में ही ठीक हो गयी।“
तब मैंने दीदी से पूछा, “इनको बेचकर कितनी आमदनी हो जाती है ?“
“अभी ईद पर 6 बकरे बेचे तो एक लाख छः हजार रुपये मिले है।“
“दीदी, बकरियों को “बोरिया“ बीमारी के टीके लग गए क्या ?“
“आज शाम को पेरावेट भैया आयेंगे और एक टीका पांच रुपये में लगायेंगे।“
तभी मोटरसाइकिल रुकने की आवाज आती है। पेरावेट भैया के इंजेक्शन लगाने पर बकरियां जोर-जोर से मिमियाने लगती हैं। इससे मुझे पता चल जाता है बड़वाह महिला प्रगति समिति का पशुधन कार्यक्रम इस दूर दराज इलाके के “सुलगांव“ गांव की बस्ती में भी आ पहुँचा है।
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