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सुभद्रा दीदी

अपडेट करने की तारीख: 3 अक्तू॰ 2021


देवास जिले के उदयनगर तहसील में बसा आदिवासी बाहुल्य गाँव रातातलाई है, जहाँ पर लोग खेती और मजदूरी करके अपना जीवन यापन करते हैं। उन्हीं में से एक हैं सुभद्रा दीदी। बचपन में ही उनकी शादी कर दी गई जब वे मात्र 15 साल की ही थीं। ससुराल में परिवार बड़ा होने के कारण 8 बीघा ज़मीन से इतने लोगों का पेट पालना मुश्किल था। इसलिए पड़ोस में बिक रही ज़मीन को खरीदने के लिए इन्होंने अपने पैर के चाँदी के कड़े तक बेच दिए।


परिवार का गुजारा जैसे-तैसे हो ही रहा था कि एक दिन इनके सर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। अचानक इनका बेटा खेत में आकर कहता है, “बाई, पापा सोइगिया और उठ नी रिया, उनके मुण्डा से खून निकली रियों।” ये सुनकर सुभद्रा दीदी पत्थर सी हो गईं, मानों काटो तो खून नहीं। “हे भगवान, अब म्हारो कय होइग, हाउ अकेली चार बच्चा ने कसी पालुंगा!” वे एकदम बिना सोचे-समझे कुएं की पाल पर चढ़ गयीं और जैसे ही कूदने वाली थीं कि उनकी नज़र अपने बेटे पर पड़ी। उसका चेहरा देखकर चारों मासूम बच्चों के चेहरे उनके सामने आ गए। खुद को संभालते हुए विचार करने लगीं कि जाने वाला तो चला गया पर जो जिन्दा हैं, उन्हें तो पालना ही होगा। भारी मन से उन्होंने अपने पति के अंतिम संस्कार की व्यवस्था की।

मेहनत-मजदूरी करके सुभद्रा दीदी परिवार का गुजारा करने लगीं। इसी के साथ वे दाई माँ का काम भी करती थीं, जिससे उन्हें थोड़ा अनाज और कपड़े मिल जाते थें। 2-4 महीने किसी तरह कट गये, पर असली परेशानी तो इसके बाद आई। इस दुखद घड़ी में परिवार वालों ने उनको अपने से अलग कर दिया। सुभद्रा दीदी के हिस्से में बस 4 बीघा जमीन ही आयी। सुखत खेती से परिवार को पालना मुश्किल था, और जरूरतों के लिए लोगों से पैसा उधार मांगने पर भी नहीं मिलता था। जैसे-जैसे समय बीतता गया, बच्चों की पढाई का खर्चा भी बढ़ने लगा।



सुभद्रा दीदी इसी उधेड़-बुन में ही लगीं हुई थीं कि उन्हें एक दिन रातातलाई के पास वाले गाँव नीमखेड़ा में चल रहे ‘स्वयं सहायता समूह’ कार्यक्रम के बारे में पता चला। समाज प्रगति सहयोग के कार्यकर्ता, समूह के संचालक, जिन्हें मितान कहते हैं, उन्होनें रातातलाई गाँव की महिलाओं को इकट्ठा करके उस कार्यक्रम और उससे होने वाली बचत के बारे में बताया। पहले गाँव की महिलायें समूह में जुड़ने से डर रहीं थीं। उनको यह शंका थी कि वह जो पैसे समूह बचत के लिए देंगी, वे वापस आयेंगे भी कि नहीं। मितान उनके गाँव का ही था, तो सुभद्रा दीदी और गाँव की 19 महिलाओं ने उनपर विश्वास किया और सन् 2002 में मंगलाश्री प्रगति समूह का गठन किया।


‘स्वयं सहायता समूह’ के नियमानुसार, सभी सदस्यों को एक निश्चित राशि, बचत के अनुरूप, समूह में जमा करनी होती है। यह राशि महिलायें अपने हिसाब से तय करती हैं। धीरे-धीरे यह रकम काफी बड़ी हो जाती है और किसी भी सदस्य को जब पैसों की आवश्यकता पड़ती है तो वह इस बचत में से ऋण लेती है। समूह से ऋण लेने पर ब्याज़ कम लगता है और उसकी किश्तों को अपने सुविधा अनुसार चुकाया जा सकता है।


सुभद्रा दीदी की पहली मासिक बचत 33 रुपये से शुरू हुई और उन्होंने घर-खर्च के लिए समूह से पहला ऋण 500 रुपये का लिया। उसको चुकाने के बाद उन्होंने अपने बेटों की पढ़ाई के लिए कई और छोटे-छोटे ऋण लिए। ‘स्वयं सहायता समूह’ से दीदी को अपने बेटों को पढ़ाने के लिए एक सहारा मिल गया।


हर समूह का बैंक से जुड़ाव होना अनिवार्य है। मंगलाश्री प्रगति समूह के नाम से खाता खुलवाया गया। इसी के साथ उससे जुड़े सदस्यों के खाते भी बैंक में खुलवाए गए और उसके तौर-तरीके जानने के लिए कई बार समूह की मीटिंग हुई। धीरे-धीरे, इन महिलाओं की, बैंक से सम्बंधित कामों की समझ बढ़ने लगीं। जिन्हें कभी बैंक के नाम से भी शंका होती थी, अब वे उसकी प्रक्रिया की अच्छी जानकारी रखने लगीं। यह बदलाव सुभद्रा दीदी और उनकी सहेलियों के लिए बड़े गर्व की बात थी।


समूह के सदस्यों को कई बार, मितान के साथ बैंक भेजा गया, ताकि वे वहां हो रहे काम काज को देखे और खुद उन्हें पूरा करने के लिए सक्षम बनें। आखिरकार एक दिन समूह के पैसे जमा करने के लिए सुभद्रा दीदी को अकेले बैंक जाने के लिए बोला गया। वहां पहुंचकर दीदी ने देखा कि अंदर ज़्यादा भीड़ नहीं थी, तब भी उन्हें एक कर्मचारी ने इंतजार करने के लिए बोल दिया। बैठे-बैठे जब काफी देर हो गई तो उन्होंने समझा कि उनके बाद आये लोगों के काम उनसे पहले हो रहे थे। उन्होंने शिकायत करने की सोची पर अकेले होने की वजह से उन्हें झिझक महसूस हुई। दीदी ने मितान की बात को याद किया, “डरना नहीं, बैंक अपना ही है”। हिम्मत जुटाते हुए उन्होंने कर्मचारी से पूछा, “कइका लिए बैठा!”


कर्मचारी के ना सुनने पर, सुभद्रा दीदी ने हार ना मानने का निर्णय लिया और बची-कुची हिचकिचाहट को भी मिटाते हुए बोलीं “कबसी खड़िया हम, कय समझ रख्यों है!”


उनके बार-बार बोलने पर कर्मचारी ने उनका काम आखिरकार कर दिया और दीदी को अपना आत्मबल बढत़ा महसूस हुआ। इसके बाद दीदी ने कई बार अकेले बैंक जाकर पैसे निकाले और जमा करे। अब उनकी बैंक में अच्छी पहचान हो गई।


सुभद्रा दीदी गाँव की दूसरी महिलाओं को अपने जिंदगी के अनुभव सुनाकर उनको समूह से जुड़ने के लिए प्रेरित करने लगीं। वहाँ की सभी महिलाओं का उन पर बेशुमार भरोसा होने लगा। उनको सन् 2015 में समूह का अध्यक्ष भी बनाया गया। धीरे-धीरे वे संकुल और समिति की मीटिंग में भी जाने लगीं। वहां उन्हें कई सामाजिक व विकास सम्बंधित मुद्दों पर हो रही चर्चाएँ और उनकी जैसी कई महिलाओं के अनुभव सुनने को मिले। पंद्रह से बीस समूह एक संकुल बनाते हैं, और पंद्रह से बीस संकुल एक समिति। इस प्रकार सुभद्रा दीदी 2130 महिला सदस्यों से बनी पुंजापुरा प्रगति समिति का हिस्सा बनीं। इसी के साथ दीदी गाँव की पंचायत की मीटिंग में भाग लेने लगीं। कभी ऐसा भी होगा, यह उन्होंने सपने में भी सोचा नहीं था।


छोटे बेटे की इन्जीनियरिंग की पढ़ाई के लिए सुभद्रा दीदी ने समूह से 50,000 रुपये का लोन लिया। ऐसा करते-करते उन्होंने कुल मिलाकर 2 लाख रुपये तक के लोन अपने बेटों की पढ़ाई के लिए उठाए। उन्होनें अपनी मूल जरूरतों पर कोई खर्चा नहीं किया, यहाँ तक कि घर में लाइट भी नहीं लगवायी। उन्होंने उन्हीं कपड़ों में अपनी ज़िन्दगी गुजारी जो उन्हें दाई माँ के काम से मिलते थे।



सुभद्रा दीदी के बड़े बेटे की जब सरकारी नौकरी लग गई और वह कृषि अधिकारी बन गया तो उसने अपनी पहली तन्ख्वाह से माँ को जामुनी रंग की साड़ी भेंट की।


बेटे द्वारा दिलायी पहली साड़ी को पहनकर सुभद्रा दीदी बहुत खुश हुईं और उन्हें ऐसा लगा कि मानों उन्होंने खुद के पैसों से साड़ी खरीदी हो। वह अब अपने बेटों से मजाक करती हैं, “मने गला को हार, पैर का कड़ा और कान की झुमकी भी चाइजे। लाड़ीबाई बनुंगा हाव” हंसते हुए उनके बेटे बोलते हैं कि वे घर में झूला भी बांध देंगे ताकि सुभद्रा दीदी उस पर पूरा दिन बैठें और झूलती रहें। इस हंसी-मजाक से दीदी बहुत खुश होती हैं और कहती हैं कि स्वयं सहायता समूह कार्यकर्म से उनका अपने बेटों को पढ़ाने का सपना पूरा हो गया है।

 
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