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सुखमा

  • लेखक की तस्वीर: SPS Community Media
    SPS Community Media
  • 10 जून 2023
  • 1 मिनट पठन

नोट - पॉडकास्ट सुनने के लिए कृपया नीचे त्रिकोण (▶) को दबाये|


Research: Laxminarayan Devda

Story Writers: Iqbal Hussain, Sandip Bhati, Laxminarayan Devda

Voice: Varsha Ransore

Sound Recording: Sandip Bhati

Sound Design: Sandip Bhati and Iqbal Hussain

Sound Mixing: Iqbal Hussain

Drawing: Aditya Verma and Kiran Dayal

Mentor & Guide: Pinky Brahma Choudhury

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Read The Story / कहानी पढ़िए

कल ही तो ब्याहकर ससुराल आई थी, सुखमा बाई के हाथों से मेहंदी का रंग छूटा ही नहीं था। उन्हें क्या पता था, शादी के दूसरे दिन ही अपने पति रूपसिंह के साथ काम धंधा करने मालवा जाना पडे़गा। रूपसिंह भैया तो उस जगह से भली भांति परिचित थे। उनका बचपन मालवा पठार में किसानों के यहाँ, काम करके ही गुजरा था। घाट नीचे यानि कि नर्मदा घाटी से कई लोग घाट ऊपर मालवा पठार में मजदूरी और काम धंधे की तलाश में जाते हैं। वहाँ पर मजदूरी आसानी से मिल जाती है जो कि घाट नीचे मुश्किल है। रूपसिंह भैया का मालवा में एक सेठ के पास मजदूरी का काम पक्का हो गया था।


महज पंद्रह साल की सुखमा बाई कई उम्मीदें और मन में संकोच लिए पहली बार घर से इतनी दूर बाहर गईं। वहाँ पहुँचने पर सेठ ने उन्हें अपने खेत में बनी एक छोटी सी टापरी रहने के लिए दे दी। हर रोज सुबह 4 बजे उठकर भैंसों का दूध निकालना, गोबर फैंकना और उन्हें चारा डालना ये भैया का रोज का काम था। सुखमा बाई को जल्दी उठने और इतना काम करने की आदत न थी क्योंकि मायके में उन्होंने घर का ही काम किया। कभी-कभी भैया को सेठ से काफी खरी-खोटी सुनने को मिलती, यह देख सुखमा बाई को भी जल्दी उठने की आदत डालनी पड़ी। अब सुखमा बाई भी, भैया के साथ जल्दी उठकर खाना बनाने में जुट जाती। सूरज निकलने से पहले ही दोनों साथ में खाना खा लेते, क्योंकि भैया को खेती का और सेठ के घर काम करते-करते रात के 9 से 10 बज ही जाते थे। खाना खाते समय ही वे दोनों एक साथ बैठकर अपने मन की बात कर सकते थे। सुखमा बाई अन्य मजदूरों के साथ दूसरी जगह खुली धाड़की करने भी चली जाती। अब तो यह उन दोनों के लिए रोजमर्रा का काम हो गया था।


सालों साल यहीं दिनचर्या चलती रही, धीरे-धीरे दो बेटे और तीन बेटियों के साथ परिवार बढ़ने से खर्च भी बढ़ते गए। भैया को साल के बारह हजार रूपये मिलते थे, जिसमें बच्चों की पढ़ाई, इलाज, कभी रिश्तेदारों के यहाँ मान और शादियों में कपड़े ले जाने में ही खर्च हो जाते थे। बाकि जरूरतों के लिए भैया को अपनी सालाना तय मजदूरी के अलावा भी सेठ से और पैसे मांगना पड़ता था। जब साल पर हिसाब होता तो भैया के उपर कर्जा रह ही जाता। उन्हें फिर सेठ के यहाँ काम करना पड़ता और हर साल कुछ न कुछ जरूरत पड़ती रहती और हिसाब के समय फिर कर्जा निकल आता। इसी तरह वे बंधुआ मजदूरी के चंगुल में फंसते चले गए। सुखमा बाई को मन ही मन अब कई बातें खाये जा रही थी। कब तक दूसरों के यहाँ इसी तरह काम करते रहेंगे ? हमारे बच्चों का क्या होगा ? वो भी हमारी तरह ही सेठों के यहाँ काम करेंगे क्या! पैसा इकट्ठा करने के लिए सुखमा बाई अब दिन रात धाड़की मजदूरी करने में लगी रहती ताकि जैसे-तैसे सेठ के कर्ज से मुक्त हों। दिन में सोयाबीन काटती तो रात में थ्रेसर मशीन पर सोयाबीन निकालने जाती। गेहूँ ,चने के सीजन में तो चांदनी रात में भी कटाई करती ताकि कुछ पैसा इकट्ठा हो जाए तो वापस अपने गाँव लोट सकें।


मालवा में 12 साल कड़ी मेहनत करते-करते आखिरकार वो दिन आ ही गया, जब वे घाट नीचे अपने गाँव तातूखेड़ी आए। रूपसिंह भैया के पिताजी ने इन्हें दो बीघा जमीन इनके हिस्से की दे दी। सुखमा बाई और भैया मालवा से 5 हजार रुपये बचाकर लाए थे, उन्हीं पैसों से पड़ोस के गाँव पीपरी में 7 बीघा जमीन मुनाफे पर रख ली। जमीन पियत न होने के कारण सिर्फ बारिश की ही फसल पका पाते थे। गेहूँ कटाई और आलू निकालने मालवा जाना ही पड़ता था। चार पांच सालों तक तो, बारिश की फसल की कमाई और मालवा में धाड़की मजदूरी करके पैसे इकट्ठा किए। फिर अपने गाँव में बिक रही 2 बीघा जमीन 40 हजार रूपयों में खरीदी। बाकि बचे कुछ पैसे इन्होनें 4-5 बकरा, बकरी और एक भैंस बेचकर चुकाए। अब इनके पास चार बीघा जमीन हो गई। अपनी जमीन होने से सुखमा बाई और भैया ने मुनाफे वाली जमीन करना छोड दिया। सुखमा बाई और रूपसिंह भैया ने मालवा में जिस तरह खेती करना सीखा था, उसी तरह अनाब-सनाब रासायनिक दवाइयों और खाद का छिड़काव अपनी खेती में भी किया।


मालवा की जमीन काली गहरी होने से उत्पादन अच्छा देती थी। पर उन्होंने अपनी हल्की लाल रेतीली जमीन में कभी पौधों को बढाने तो कभी फूलों को टिकाने और फली को कीडों से बचाने के लिए महंगी दवाइयाँ डालीं, पर इनकी जमीन कुछ खास उत्पादन नहीं दे पाई। हर साल बोवनी के समय खाद-बीज और दवाई के लिए सेठ-साहूकार के आगे हाथ फैलाने ही पड़ते थे। उसी का फायदा उठाकर साहूकार दवाई, खाद-बीज तो महंगा देते ही थे, ऊपर से ब्याज जोड़ते वो अलग। कई बार तो सुखमा बाई और भैया खेती में इतना ज्यादा खर्च कर देते थे कि लागत भी नहीं निकल पाती थी। जितनी फसल पकती उतनी सेठ बनियों के कर्जे में ही चली जाती थी।


खेती को बखरने और बाजार का खाद डालने के लिए पैसों की जरूरत पड़ने लगी इसलिए सुखमा बाई महिलाओं के बचत समूह, दुर्गा प्रगति समूह में जुड गई। इन्हें समूह से केवल कम ब्याज दर पर पैसों की ही मदद नहीं, बल्कि सामाजिक मुद्दे, सरकारी योजनाओं के साथ खेती किसानी की भी कई जानकारियाँ मिली। समूह मीटिंग में समाज प्रगति सहयोग संस्था के खेती कार्यक्रम में काम करने वाले मितान भैया, दीदियों के साथ रासायनिक दवाई और खाद से खेती में होने वाले नुकसान के बारे में चर्चा करते थे। रासायनिक खाद डालने से जमीन की उपजाऊ ताकत धीरे-धीरे चली जाती है और जमीन भी कड़क होती है। समूह की सभी दीदियाँ मितान भैया की इन बातों को एक कान से सुनतीं और दूसरे कान से निकाल देतीं थीं। समूह सदस्य कहते कि ”वी बडा बडा किसान पागल है कई जो ट्रेक्टर भर-भर के खाद लाय और खेत में छिड़के” मितान भैया ने हिम्मत नहीं हारी और वे हर मीटिंग में खेती बाड़ी से जुड़ी जानकारी समझाने के लिए सदस्यों को फिल्में भी दिखाते।


अपनी जमीन पर बढ़ते रासायनिक खाद और दवाई का खर्च निकालना सुखमा बाई और भैया के लिए मुश्किल होता जा रहा था। जमीन को खराब होते देख सुखमा बाई ने बिना रासायनिक दवाई (एन.पी.एम.) खेती से जुड़ने का सोचा। एक दिन समूह मीटिंग से घर जाकर सुखमा बाई ने रूपसिंह भैया से कहा कि “समूह में मितान भैया ने रासायनिक दवा के बिना खेती करने की बात बताई है, हमें एक बार वैसा करके देखना चाहिए।“ उनकी बातें सुनते ही रूपसिंह भैया बोलते है, “रासायनिक दवाई खेत में नहीं डालेगें तो बच्चे भूखे मर जायेंगे। मालवा में नहीं देखा क्या? सेठ कितने तरह की महंगी से महंगी दवाई छिडकवाते थे। जितनी दवाई डलती थी उतनी अच्छी फसल पकती थी।“ भैया की ये बातें सुनकर सुखमा बाई चुप हो गईं।


समूह मीटिंग में मितान भैया समझाते हैं कि “दीदी हम छोटे किसान हैं बडे किसानों की देखा देखी हम भी खेती करेंगे तो हमारा नुकसान है क्योंकि बडे़ किसान की फसल में एक साल लागत नहीं भी निकली तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा पर हम कर्ज के जाल में फंस सकते है।“ समूह के सदस्य मितान भैया की बातों का जवाब देते है “हम तो तैयार हैं, पर घर वाले इस तरह की खेती करने को राजी नहीं हैं।“ भरोसा दिलाने के लिए, मितान भैया दीदियों के साथ भैयाओं को भी लेकर नीमखेड़ा गॉव विजिट के लिए गए। वहाँ उन्हें बिना रासायनिक दवाई की खेती करने वाले कई किसानों से मिलवाया। उनके खेतों में गेहूँ चने की लहरहाती फसलों को देख वे सभी लोग अंचम्भित रह गये। रुपसिंह भैया को भरोसा ही नहीं हो रहा था कि बिना रासायनिक दवाई डाले इतनी अच्छी फसल कैसे आ सकती है।


रुपसिंह भैया से रहा नहीं गया और आखिरकार उन्होंने किसान से पूछ ही लिया, “क्या फसल में कीड़े नहीं लगते?“ “कीड़े तो लगते हैं पर फसल को बचाने के लिए पाँच पत्ती, नीम काड़ा और चटनी दवाई का छिडकाव करता हूँ ।“ किसान ने हंसते हुए बात का जवाब दिया। रुपसिंह भैया के चेहरे के हाव भाव बदलते देख किसान ने कहा “आपका पूछना सही है, पहले मुझे भी भरोसा नहीं था, जैविक दवाई का छिड़काव किया तब से फसलें भी कीड़ों से बचने लगी हैं। जैब खर्च भी कम हुआ तो जुड़ गए इस खेती से।“ मितान भैया ने किसान के खेत में बने भू-नाडेप के खाद को दिखाते हुए दीदी भैया से कहा “ भू-नाडेप में कचरा सड़ाकर खाद आसानी से बना सकते हैं और उसको जमीन में डालने से उसकी उपजाऊ ताकत बढ़ेगी। इस तरह खाद बनायेंगे तो खाद पर लगने वाले खर्च में धीरे-धीरे कमी आने लगेगी।“ सुखमा बाई को किसान और मितान की बात जम गई। उन्होंने ठान लिया अब खेत में जो भी कचरा निकलेगा उसका खाद ही बनायेगें।


अगली समूह मीटिंग में मितान भैया के पूछने से पहले ही सुखमा बाई ने कहा “म्हारे बिना रासायनिक दवाई की खेती करनी है।” कुछ दिनों के बाद सुखमा बाई के खेत में मितान भैया, उन्हें भू-नाडेप की नपती बताकर भरने का तरीका भी समझाते हैं। सुखमा बाई के खेत में जितना भी मोटा और बारीक कचरा था, वे भू-नाडेप में डालती गईं। गोबर पानी के घोल के साथ थोड़ी बहुत खेत की मिट्टी भी डाली। एक दिन जब मितान भैया आये तो उन्होंने भू-नाडेप पर मगराकार में छबाई करा दी ताकि कचरा जल्दी से सड जाए।


मानसून आने से पहले सुखमा बाई और भैया अपनी जमीन को तैयार करने में जुट जाते हैं। तेज हवाओं के साथ आसमान में काले बादल छाने लगते हैं। बादलों की गडगडाहट और बिजली की चमक के साथ मानसून का आगाज होता है। सुखमा बाई बोवनी से पन्द्रह दिन पहले एक छोटी सी टोपली में मक्का के 50 बीज डाल देती हैं। बारिश की बूंदे जमीन को पहली बार तर करती हैं, उसी दिन से सुखमा बाई और भैया का समय खेती में गुजरने लगता है। टोपली में मक्का के 43 पौधे निकल आए, सुखमा बाई और भैया का बीज को लेकर जो डर था अब वो भी खत्म हो गया।


सुखमा बाई ने पहली बार बीजों को उपचार करके बोया। उन्होंने अपनी चार बीघा जमीन में कई रंग बिरंगे बीज डाले। मक्का, लाल तुवर, तिल, मूंग, चवला, मूंगफली, उड़द आदि। इस बार उनके लिए खेती करने का तरीका नया था। मितान भैया हर महीने आकर उनकी फसल देखते और कीटों से बचाने के लिए कई जैविक तरीके भी समझाते। 4 महीने बाद सुखमा बाई और भैया, भू-नाडेप से चाय की पत्ती की तरह दानेदार जैविक खाद निकालकर मक्का और लाल तुअर के गोड़ में डालते है ।


इनके पिताजी ने जो जमीन हिस्से में दी थी वो हल्की औैर लाल रेतीली थी। पैसों की तंगी और कम मवेशी होने के कारण वे कभी पर्याप्त मात्रा में इस जमीन में गोबरी खाद नहीं डाल पाए। सुखमा बाई ने गाँव में 2 हजार रुपये ट्राली के भाव से बिक रहा 8 ट्राली गोबर खाद खरीदकर डाला। जब फसलें आई तो उसकी बडवार और पत्तों का रंग इस बार अलग ही था। कुछ दिनों बाद मितान भैया, सुखमा बाई के साथ खेत में फैरामेन ट्रेप लगाते है। भैया बताते हैं कि “केप्सूल में नर फुद्दे की गंध होती है, जिसकी खूशबू सूंघकर मादा फुद्दी ट्रेप में आती है। जब इस ट्रेप में चार-पाँच फुद्दी फंस जाए तो मालूम पड़ जाता है कि खेत में कीडे़ आने वाले हैं।” फसलों को कीटों से बचाने के लिए पाँच पत्तियों की दवाई बनाने में जुट जाती है। नीम, अकाव, धतूरा, बेशरम और सीताफल की पत्तियों को बारीक कूटती हैं। सुखमा बाई से भैया पूछते हैं “या दवई काम भी करग नी तो असो नी होय इनी दवई क भरोसा बठी रवा और पतों चले फसल क इल्ली खय गई” “या दवई छिडकना सी पत्ती कडवी हुई जाय तो इल्ली पत्ती क नी खाय और खेत छोड़ी न भी भागी जाय।“


सुखमा बाई ने देखा कि फैरामेन ट्रेप में चार-पाँच फुद्दियाँ फंस गई हैं, तो उन्होंने फसल में पांच पत्ती दवाई का छिडकाव करवाया। इनके पास भू-नाडेप के अलावा पक्का नाडेप और चार चक्रीय कम्पोस्ट पीट भी है। जिनसे उन्हें साल में 8-10 ट्राली खाद मिल जाता है। अब फसल पककर तैयार हो चुकी थी एक-एक खर्च का हिसाब मिलाया तो इस बार लागत खर्च कम आया। भैया ने फैसला लिया कि ”अब रासायनिक दवाई कोई फ्री में भी दे तो नहीं छिडकेंगे।” पिछले छः सालों से सुखमा बाई और रूपसिंह भैया बिना रासायनिक दवाई की खेती करते आ रहे हैं।


सुखमा बाई कहती हैं “इस तरह की खेती करने में मेहनत तो है, पर फायदा भी खूब है। खेती का खर्च काटकर साल में दोनों फसलों से लगभग चालीस से पचास हजार रूपयों की आमदनी हो जाती है और साथ ही साल भर खाने के लिए अनाज, दाले और ताजी सब्जियां भी मिल जाती है।“ इनका मानना है कि इस तरह की खेती करने से जमीन की उपजाऊ ताकत बढ़ती है और सबसे बड़ा फायदा यह है कि ”परिवार बिना जहर का सुरक्षित खाना खा रहा है।“













 
 
 

2 टिप्पणियां


Milind Chhabra
Milind Chhabra
11 जून 2023

Bohot hi sundar prastuti! Congratulations!! :D

लाइक
spscommunitymedia
12 जून 2023
को जवाब दे रहे हैं
बहुत-बहुत धन्यवाद, हमसे जुड़ने के लिए भी आपका आभार।
लाइक
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