सतवास नगर के एक मोहल्ले में लॉक डाउन के दौरान ...
*कोरोना वायरस कॉलरट्यून *
फातिमा दीदी- हेलो!
मिलिंद- हेलो!
फातिमा दीदी- हाँ! अब आ गयी अब, हाँ।
मिलिंद- हाँ जी।
फातिमा दीदी- हाँ भैया। पहले तो बाहर निकलने नहीं दे रहे थे। 100 नंबर गाड़ी आयी, मेरे को मोहल्ले की बाईयों ने बुलाया, "फातिमा!" तो मैंने 100 नंबर गाड़ी को भैया रोका, तो गाड़ी रुकी ही नहीं। साइड से मतलब ऐसा कट मारा गाड़ी ने और नीचे की लाइन में चली गयी। अब बाईयाँ घबरा गयीं, "100 नंबर गाड़ी को कैसे रोकेंगे!"
मुँह बाँधी मैंने भैया और मैं भागती- भागती नीचे की लाइन में गयी और गाड़ी के सामने आके मैं खड़ी हो गयी। मैंने कहा खड़ी हो गयी और साब देखो तो आराम से लेटें हैं गाड़ी के अंदर। मैंने ड्राइवर से पूछा, "साब-वाब हैं कि नहीं हैं, गाड़ी में?" तो कहा, "हाँ-हाँ, हैं-है।" बोले कि क्या काम है। मैंने कहा, "काम-वाम क्या है? आप लोगो का तो क्या है, घूमना-फिरना और लोग बाहर दिखे तो डंडे मारना।" मैंने कहा, "कभी लोगों से पूछा आपने कि क्या करना है, क्या नहीं करना है? घर में तुम्हारे खाने को है कि नहीं है? तुमने तो लगा दिया लॉकडाउन, कि लॉकडाउन का पालन करो और दूसरे हैं जो देखते बंद नहीं हो रहे।"
यह फातिमा दीदी हैं। मध्य प्रदेश के देवास ज़िले में स्थित सतवास नगर के वार्ड नंबर 10 में वे लॉक डाउन के दौरान लोगों की समस्या सुलझाने के लिए पुलिस से जूझ रहीं हैं l
फातिमा दीदी- तो वो पुलिस वाला बोले, "एक काम करो, आप थाने आ जाओ सब बाईयों को लेके और एक-एक मीटर की दूरी बना के आ जाओं।"
मैंने जब बोली, "आप मार लो, मुझे डंडे भी मार लो आप। आपकी मार भी बर्दाश्त है मुझे, पर हैना कोरोना बीमारी भी बर्दाश्त है मुझे, पर भूख बर्दाश्त नहीं है भाई, चार महीने की।" तो उन्होंने बोला, "आपकी बात सही है, आप थाने आइए और आप एस.पी. साब से बात कीजिये।"
सतवास नगर के वार्ड नंबर 10 में रहने वाले अधिकतर लोग मज़दूर वर्ग की श्रेणी में आते हैं। इसी वार्ड में फातिमा दीदी और उनके पति हबीब खान वेल्डिंग की दुकान चलाते हैं।
वार्ड के कई लोग पास के खेतों में जाकर मज़दूरी करते हैं, कुछ नाई हैं, तो कुछ कारीगर हैं, जो अपने छोटे-मोटे धंधे साइकिल या ठेले पर घूम-घूम कर चलाते हैं।
इन लोगो के घर रोज़ की कमाई पर निर्भर हैं, जो इस महामारी के चलते लॉक डाउन के कारण आज ना के बराबर हो गयी है।
फातिमा दीदी- अब हम थाने तो चले गए। कम-से-कम मैं दस बाईयों को लेकर गयी, एक-एक मीटर की दूरी बनाते हुए भी गयी। तो कुछ बाईयाँ क्या पास-पास चली गयीं, तो टी.आई. साब मेरे को देख के भड़क गया। भड़का तो साब ने कहा, " ऐ! वही रुक जाओ!" तो मैंने कहा, "क्यों?" तो हम वहीं खड़े हो गए थाने के बाहर। तो बोला, "अरे! ये कोई 100 नंबर रोकने का तुम्हारा तरीका है?"
तो मैंने कहा, "मैंने 100 नंबर रोकी, कोई इनके साथ गलत व्यवहार तो नहीं करी। आप पूछ सकते हो आपके कर्मचारी से कि मैंने उनसे गलत व्यवहार करी हूँ। मैंने उनसे रास्ता पूछी हूँ, उन्होंने मुझे आपका रास्ता बताया, अब मैं आयी हूँ।"
उन्होंने मुझे कम-से-कम मेरे को इतनी बात सुना दिया टी.आई. ने। उसके बाद कोई कहता है, "जाओ! नगर पँचायत में बैठीं हैं तहसीलदारनी मैडम, नगर पँचायत में जाना। और यहाँ थाने में भीड़ लगाने की ज़रूरत नहीं है और 100 नंबर को रोकने की ज़रूरत नहीं है।" मैंने कहा, "ठीक है टी.आई. साब। आप को बहुत-बहुत धन्यवाद मेरे को रस्ता दिखाने के लिए, और आपने अच्छा हुआ मुझे बता दिया वहाँ पे, नगर पँचायत में मैडम बैठीं हैं। नहीं तो पता नहीं मुझे और कहाँ भटकना पड़ता, कौन सी दो बात सुननी पड़ती। तो टी.आई. साब का नीचे मुँह हो गया, मैंने उनको धन्यवाद बोली। मैंने कहा, "धन्यवाद आपको, मुझे रास्ता दिखाने के लिए।"
इस लॉक डाउन के समय हमारे देश में सब लोग अपने-अपने घरो में बंद हो गए हैं। सब कोशिश कर रहे हैं कि घर से ही जितना काम हो सके, कर लें। पर सतवास के इस वार्ड में जो लोग रोज़ की कमाई पर निर्भर हैं, उनका क्या?
फातिमा दीदी के पास अपना घर है, अपनी वेल्डिंग की दुकान है, कमाई भी अच्छी होती है। दीदी का बैंक में खाता है, घर में थोड़ी बचत भी है और वो एक समूह का हिस्सा भी हैं। उनका परिवार तो यह लॉकडाउन किसी तरह झेल पा रहा है। तो दीदी का यह संघर्ष किस लिये है?
फातिमा दीदी- सबसे पहली वजह तो भूख और गरीबी। भूख बहुत बुरी चीज़ होती है, पेट की भूख, और हमने भूख को देखा है बहुत पास से और हमारे साथ-साथ हमारी बच्ची ने भी देखा।
फातिमा दीदी की पैदाइश मध्य प्रदेश के हरदा ज़िले के एक गाँव, चार्वा में हुई। उनके पिता गाँव के सरपंच थे, घर पे गायें-भेंस थीं और परिवार के पास काफी ज़मीन थी। उसी गाँव की एक वेल्डिंग की दूकान में हबीब भैया काम करते थे। हबीब भैया का फातिमा दीदी के घर आना-जाना लगा रहता था। जान-पहचान तो थी ही, मुलाकातों में बातें शुरू हो गईं, और बातो ही बातो में वे एक दूसरे को पसंद करने लग गए। फिर उन्होंने एक ऐसा फैसला लिया, जिसने उनकी ज़िन्दगी बदल दी।
फातिमा दीदी- मेरी लव मैरिज है, मैं अदर कास्ट की हूँ। मतलब मराठी समाज आती है न, आपने देखी होगी, मराठा समाज आती है न, उस समाज की हूँ मतलब और मेरे हस्बैंड हैं न, वो मोमेडियन हैं, और हमारी लव मैरिज है। मतलब मैंने इस्लाम धरम कबूल करी हूँ, हैना? तो हम लोग घर से भाग गए। घर से भागे, तो हम छत्तीसगढ़ गए, छत्तीसगढ़ से फिर हम बॉम्बे चले गए।
बॉम्बे में हम तीन साल रहे, मालूम? मैं बम्बई में कल्याण में रहती थी, पत्रीपुर में, मेरी कंडिशन बहुत ख़राब थी भैया। हमने ऐसा खाया कि हम को पड़ोसी ने जो चावल दिए न वो ख़राब चावल दिए भैया, हमने वो चावल को दो बार पानी में धोये और गिलास में घोल के उस चावल को हमने पी है भैया। और जो अपन गजरे लगाते हैं न बम्बई में, वो वाला धागा बनाती थी। दिन में मैं बनाती थी, पूरी-पूरी रात वो धागा बनाते थे, चार रुपये/किलो में। चालीस रुपये दिन भर में मैं कमाती थी दस किलो धागा बनाके, चालीस रुपये वो कमाते थे, अस्सी रपये में हम गुज़ारा करते थे बॉम्बे में।
फातिमा दीदी और हबीब भैया को अपने सफर में कुछ ऐसे भी लोग मिले, जिन्होंने उनकी बहुत मदद की।
फातिमा दीदी - वक्त ऐसा था भैया, इनके जेठ थे, तो उन्होंने हमको ऐसा निकाल दिया घर से बाहर, मालूम? हम दो दिन तक सड़क पे रिए। तो जो किन्नर आते हैं न? तो हम को किन्नर ने एक दिन, एक रात, किन्नर ने मुझे घर में रखा। मतलब, गुरु माँ बोलते थे वो किन्नर को, बहुत अच्छी थी वो। अगर आज भी मैं बॉम्बे जाती हूँ न, तो उनसे मिलने ज़रूर जाती हूँ मैं।
इस घटना ने फातिमा दीदी पर गहरा प्रभाव डाला। जब वे बम्बई में बेघर और लाचार थी, तब उन्हें एक किन्नर ने अपने घर आसरा दिया, ऐसे व्यक्ति ने जिन्हें हमारा समाज इन्सानों का दर्जा तक नहीं देता।
फातिमा दीदी - तीन साल रहे बॉम्बे में हम, तीन साल में मतलब बहुत कुछ कमा लिया। फिर वो ताज और ओबेरॉय होटल में 2008 में 28 नवंबर को जो दंगे हुए थे न, उस टाइम पे ये वहाँ फस गए थे, तो इनकी बहन को खबर लगी तो इनकी बहन हंडिया वाली खूब रोने-गाने लग गयी। बोली, "नहीं तुम यहाँ आ जाओ, ऐसा-वैसा, ये-वो।" तो उन्होंने न हमको, बॉम्बे से उन्होंने हमको बुला ली। 2009 में मई महीने में हम लोग यहाँ वापिस एम.पी. आ गए।
तब इनकी बेटी सिर्फ छे महीने की थी। उसे गोद में लिए और जेब में चालीस हज़ार रुपये रखे, दीदी-भैया ने सोचा कि नयी शुरुआत करेंगे। पर अब भी इनके हालातों में कुछ सुधार नहीं आया।
फातिमा दीदी- हरदा आ गए। हरदा आ गए तो हमारे बड़े जेठ हमसे थोड़े नाराज़ थे ही थे, वो अपनाना नहीं चाहते थे। फिर इनकी बहन के घर, तीन महीने तक मतलब इनकी बहन के घर रहें हम। इनकी बहन के यहाँ रहने के बाद, फिर इनकी बहन ने बोला कि चलो, कहीं भी दुकान डाल लो। इनको वेल्डिंग का हुनर याद है, तो वेल्डिंग की दुकान डाल ली। पहले हम आष्टा गए, इधर-उधर घूमे इधर के क्षेत्र में, तो हमको सतवास बहुत अच्छा लगा। 2009 में हमने सतवास में दूकान डाली। कंडिशन हमारी इतनी खराब थी कि कोई पहचानता नहीं था हमको, कोई जानता नहीं था। किराए के रहते थे, किराये की दुकान थी। लोग सोचते थे भाग जाएंगे कि क्या करेंगे, मालिक जाने। बड़ी मुश्किल से जब फिर 2009 में मई महीने में जो आंधी-तूफ़ान आया था न जिसमें चद्दरें, वगैरह उड़ी थीं? उस टाइम फिर हमारा काम स्टार्ट हुआ। काम स्टार्ट हुआ तो हम धीरे-धीरे वेल्डिंग का काम करने लग गए।
दूकान में एक और आदमी की ज़रूरत पड़ रही थी। कारीगर रखने के पैसे तो थे नहीं, तो हबीब भैया फातिमा दीदी से कहने लगे कि क्यों न वो भी वेल्डिंग का काम सीख लें?
फातिमा दीदी- तो इन्होंने क्या करा, मुझे पूरा वेल्डिंग का काम सिखाया भैया। मतलब मैं जाली, चैनल गेट, शटर, खिड़की-दरवाज़े, सभी बना लेती हूँ।
नई दूकान खोली थी, तो ज़्यादा काम नहीं मिलता था। बेटी को स्कूल में पढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे। इस वजह से दीदी ने उसे पारसी, उर्दू और अरबी सीखने के लिए मदरसा भेज दिया। इस दौरान, इन्हें अपनी पड़ोसन जुलेखा दीदी से समाज प्रगति सहयोग के बारे में पता चला।
फातिमा दीदी- वो हमारे बगल में रहती थीं, वो मीटिंग में जाती थीं। तो उससे पूछा, "तू कहाँ जाती है हर महीने के महीने?" कहती, "बाई मैं मीटिंग में जाती हूँ।" तो मैंने की, "क्या है? समूह है, क्या है?" तो कहती, "हाँ, समूह है। बहुत अच्छा समूह है, तू चलना, तेरे को मिलाऊँगी।" फिर गए हम वहाँ पर, तो हमे जुलेखा दी ने रमजान में जोड़ने की बहुत कोशिश की तो बाईयों ने ऑब्जेक्शन उठाया। बोले, "यार इसे नहीं जोड़ते, ये कहाँ से आयी है, क्या है, भाग-भुगा जायेगी, ऐसा-वैसा।" तो उन्होंने जोड़ने से मना कर दिया।
फिर मैं दूसरी जगह जब किराये से रहने गयी न? तो पापा खान से मेरी पहचान हुई, यहाँ के नेता हैं पापा खान। तो फिर उन्होंने मुझे बेटी बना लिया उनकी। उनकी बेटी बनाया फिर उनकी जो वाइफ है वो भी मदीना समूह में जुडी हुई है। तो वो मीटिंग में जाती थीं तो उन्होंने बोला, "चल बाई, तेरे को मैं जुड़उंगी मीटिंग में।" तो मैंने कहा, "अम्मी, मैंने बहुत कोशिश कर ली आज से दो साल पहले। मुझे रमजान समूह में कोई बाई ने जोड़ा ही नहीं, सब ने भगा दिया। तो कहती, "तू चल तो सही! मैं तेरे को जुड़वाँ दूंगी। फिर उन्होंने जैसे-तैसे करके मुझे मदीना में जोड़ ही लिया।
फातिमा दीदी और हबीब भैया के हालात अब कुछ सुधरने लगे। दुकान अच्छी चलने लगी तो दीदी लगातार बचत भी कर लिया करती थीं। इस वजह से समूह की बाकी सदस्यों को उनपर भरोसा होने लगा।
फातिमा दीदी- धीरे-धीरे मेरे को साल भर हो गया, समूह में जुड़ते हुए को, साल भर के बाद मेरा बैंक में खाता खुल गया। फिर मैंने अपने खाते से पाँच हज़ार, दस हज़ार, फिर बीस हज़ार, फिर डायरेक्ट पचास हज़ार, पचास हज़ार से डायरेक्ट मैंने एक लाख रुपये उठाये और आठ प्रकार की मशीनें ले के आयी, ग्राइंडर मशीन लायी मैंने, दीवार में छेद करने वाली मशीन लेके आयी, बहुत सारा सामान लेके आयी और मैंने मेरी दुकान को बड़ाई भैया।
दुकान और घर, दोनों का किराया जाता था। नया घर लेने की हैसियत नहीं थी, तो एक बार फिर फातिमा दीदी की किसी ने मदद की।
फातिमा दीदी- यहाँ मैंने एक बहन बनाई है, ब्राह्मण है वो, गोलू नाम है उसका। उन्होंने मुझे इतना सपोर्ट करी भैया, जब मैंने मकान खरीदी न तब मेरे पास 1 रूपया भी नहीं था। वार्ड में बोले, "यार फातिमा मकान लेले, मकान लेले।" मैंने कहा, "भाई, मेरे पास पैसे तो हैं ही नहीं, अपुन को मालुम है चट लाने- चट खाने वाले। समूह में बीस हज़ार भी पटाना है, क्या मालुम देगा कि नहीं देगा।" भैया लोग से बात करी तो भैया लोग बोले कि हाँ, अस्सी हज़ार रुपये दे देंगे। मैंने गोलू को बोला, "गोलू, अस्सी हज़ार रुपये तो मैं समूह से कर दूंगी, बाकी के पैसे?" तो बाकी के पैसे जो मैंने बहन बनायीं न, उसने दिए एक लाख साठ हज़ार रुपये।
आज फातिमा दीदी समूह की लीडर हैं। इतने उतार-चढाव का सामना करके, फातिमा दीदी आज अपने आप को खुश किस्मत मानती हैं। वे यह नहीं भूली हैं कि उनके सफ़र में उन्हें किन-किन हालातों से गुज़ारना पड़ा और कैसे हर मोड़ पर किसी-न-किसी ने उनका साथ दिया l इसी तरह इस मुश्किल समय में लोगों को परेशान देख, फातिमा दीदी और हबीब भैया बेझिझक लोगो की मदद करने के लिये आगे आये हैं।
फातिमा दीदी- लोगहोन बहुत अच्छे-अच्छे, बड़े-बड़े लोग जुड़े हुए हैं इनसे। तो इनको बैठे-बैठे ऐसा लगा, हमारे यहाँ दस नंबर वार्ड में हम बैड़ी पे रहते हैं, तो ये गए देखने। तो लोगो की कंडिशन भैया इतनी खराब है भूखे रहने की कि आपको बता नहीं सकती। ये आए, इन्होंने मेरे से बोला कि फातिमा, देख कंडिशन कितनी खराब है। तो फिर इन्होंने इनके दोस्तों को फ़ोन लगाया। बोले, "यार, अपन कभी एक- एक हज़ार रुपये भी चंदा करें तो अपने पास चंदा हो जाएगा। कहते, "हाँ, हो जाएगा न!"
तो फिर इन लोगों ने एक-एक हज़ार रुपये चंदा करा और एक-एक हज़ार रुपये चंदा करके जब हमने सबको बोला, तो बहुत सारे भई ने चंदा करे तो अस्सी हज़ार रुपये भेला हुआ। कोई ने एक हज़ार दिया, कोई ने दो दिए, हमने पाँच हज़ार रुपये दिए। ऐसे हमने अस्सी हज़ार रुपये भेला करे भैया और कम-से-कम चालीस- पैंतालीस क्विंटल गेहूँ हो गए थे। तो फिर इनने यहाँ सतवास थाने से परमिशन ली, तहसीलदारनी मैडम से परमिशन ली और कन्नौद एस.डी.एम. से परमिशन लेके फिर गाड़ी लेके ये इंदौर गए। मार्केट से सामान, वगैरह लेके आये, फिर कम-से-कम इनने अभी एक सौ बीस लोगो को सामान बाटा है और अभी सामान भेला कर ही रहे हैं उसमें।
फातिमा दीदी कहती हैं कि एक और वजह है जिसके कारण वे यह काम कर रही हैं, वह वजह है जातीय विवाद।
फातिमा दीदी- अब आप न्यूज़ भी देख ही रहे हो अभी इस समय। कुछ मुद्दा कोरोना का तो बहुत कम है, पर जाती-विवाद के मुद्दे कुछ ज्यादा ही चल रहे हैं अपने इसमें अभी इस समय। तो मेरा कहने का मतलब ये होता है कि जाती- विवाद मत करो अपन। क्यों कर रहे हो? जाती- विवाद से घृणा बढ़ेगी और तो कुछ नहीं होगा। बीमारी जाती देख के थोड़ी न आएगी, कि ये मुसलमान है तो मुसलमान को बीमारी आना चाहिए, हिन्दू है तो हिन्दू को आना चाहिए। आज हम दोनों ने लव मैरिज करी, इनकी जाती अलग, मेरी जाती अलग। आज हमारी दोनों की फैमिली ने हमको अपना लिया। मेरी फैमिली में कुछ फंक्शन होता है तो हम दोनों को बुलाते हैं, इनकी फैमिली में कुछ फंक्शन होता है तो हम दोनों को बुलाते हैं। हमारी फैमिली तो कभी जाती- विवाद कर ही नहीं रही। शुरू-शुरू में थोड़ा लगा उनको पर फिर अब वो तो एडजस्टमेंट हुए न?
इस रमज़ान के लिए फातिमा दीदी और हबीब भैया ने फिर से राशन इकठ्ठा किया है, ताकि जाति को परे रखकर, ज़रूरत मंद भी अपने हिस्से का अन्न खा सके।
फातिमा दीदी- हाथ उठाओ निर्माण में, न ही मांगने में न ही मारने में।
मिलिंद- हाँ जी।
फातिमा दीदी- नहीं, समझ में नहीं आया आपको।
मिलिंद- हाँ जी, हाँ जी, समझ आ गया। बहुत बढ़िया!
फातिमा दीदी- ये अपने हाथ हैं, केवल अपन निर्माण में उठाओ, मतलब कोई भी ऐसा कार्य करने में हाथ को उठाओ और न कोई को मारने में उठाओ, किसी की गिरवान पे भी हाथ मत डालो, कोई को मारो भी मत, और न ही किसी के आगे भीख मांगो अपन। मेरी पूरी स्टोरी में आपने देखा होगा कि हम दोनों ने...
अंत।
very interesting and motivated story, it is the story of the real leadership and social worker. I loved it .....thanks to all media team for giving this..