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इंद्रा नगर की कहानी

अपडेट करने की तारीख: 11 अक्तू॰ 2021



पक्के कूएँ में धम्म से गिरती रस्सी से बंधी बाल्टियाँ, कोई भरी बाल्टी खींच रहा है, तो कोई फिर से खाली बाल्टी कूएँ में डाल रहा है। सुबह-सुबह कूएँ की मुंडेर को महिलाओं और बच्चों ने चारों तरफ से घेर रखा है। जिसको जहाँ जगह मिली, वहीं से बाल्टी डालकर पानी भर रहे हैं। सभी में एक दूसरे से पहले पानी भरने की होड़ लगी है। डेढ़ साल पहले तक सड़क किनारे लगे दो हैण्डपंपों से ही गाँव के सभी लोग पानी भरते थे। पर जब सड़क को ऊंचा बनाने में मिट्टी डाली गई, तब दोनों हैण्डपंप दब गए। तब से पूरे मुहल्ले के लोग इसी कूएँ से पानी भरते हैं। गाँव से दूर किसान के खेत पर बना यह कूआँ हर सुबह ऐसे ही घिरा रहता है।


“जल्दी चलो री आज कन्नौद जाना है, लेट नी होना है अपने को” विनिता दीदी ने सिर पर घड़ा उठाते हुए महिलाओं से कहा। दीदी गाँव की समस्याओं को लेकर हमेशा चिंतित रहती हैं।


पानी से भरे हंडे-घड़े को सिर पर उठाकर महिलाएँ घर की ओर चलीं, तो आदमी लोग भरे डिब्बे सायकिल के दोनों तरफ लटकाकर ले जा रहे हैं। किसी ने 5 तो किसी ने 6 और कुछ एक ने तो सायकिल के हैण्डल पर भी डिब्बे टांगे हैं। वहीं बच्चों ने अपनी ताकत के हिसाब से दो-तीन डिब्बे सायकिल पर लटका ही लिए। कूएँ से गाँव तक डेढ़ किलोमीटर का सफर महिलाओं ने आज जल्दी तय कर लिया।


खाना बनाया, झाडू लगाई, बर्तन साफ किए, सारा काम निपटा कर विनिता दीदी तैयार हुईं और घर से निकल गईं। रास्ते में भरोसी दीदी और सोना दीदी को आवाज लगाई, वे महिलाएँ भी उनके साथ शामिल हो गईं। कुछ कच्चे और कई पक्के मकानों का ये मुहल्ला इन्द्रा नगर है। यहाँ जो पक्के मकान दिख रहे हैं, वे सरकारी आवास योजना के चलते बने हैं। कच्चे घर वालों का नाम योजना में आना बाकी है।


तीनों महिलाएँ मुहल्ले की एक छोटी सी दूकान पर पहुंच गईं। दूकान के बाहर एक बच्चा कुरकुरे खाते हुए आँखें मिचका रहा है, उसके साथ वाले बच्चे के हाथ में लाॅलीपाॅप है। बच्चा लाॅलीपाॅप चूसता है और जीभ निकालकर कुरकुरे वाले बच्चे को चिढ़ा रहा है। चायपत्ती, शक्कर, तेल, साबुन जैसी छोटी मोटी जरूरत के सामानों के लिए पूरा मुहल्ला इसी एक दूकान पर निर्भर रहता है।


”आप इत्ते ही हो या और लोग आगे से बैठेंगे?“ दूकान के सामने खड़ी पिकअप गाड़ी के ड्राइवर ने महिलाओं से पूछा। विनिता दीदी चिंतित होकर मुहल्ले की दूसरी गली में गईं और कुछ महिलाओं को साथ लेकर आईं। सभी गाड़ी में चढ़ने लगे, 23 महिलाओं और 3 भइयों से गाड़ी भर गई। ये सभी महिलाएँ “राधे रानी प्रगति समूह” और “किरण प्रगति समूह” की सदस्य हैं।


दो साल पहले जब बचत समूह कार्यक्रम की शुरूआत हुई तब इन्हें एक साथ लाना मुश्किल था। जब भी समूह के संचालक मितान पूनम भइया, यहाँ के लोगों को बचत समूह से जुड़ने के लिए समझाते थे, तब महिलाएँ कहतीं थीं कि छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसे नहीं है, बचत कहाँ से करें? पूनम भइया ने महिलाओं को बचत के फायदे के साथ-साथ कम ब्याज पर मिलने वाले लोन के बारे में समझाया, फिर पूरे गाँँव की महिलाओं ने मिलकर दो बचत समूहों का गठन किया।


अब हर माह समूह की मीटिंग में महिलाएँ इकट्ठी होती हैं, यहाँ बचत और पैसों के लेनदेन के साथ-साथ एक दूसरे की समस्या पर भी बात हो जाती हैं। इस तरह की बातों से महिलाओं का आपसी जुड़ाव भी गहरा गया है। बस्ती के हर दूसरे घर से एक न एक व्यक्ति बंधुआ मजदूर है। कुछ लोग सतवास की बड़ी दूकानों और होटलों में काम करते हैं, तो वहीं कुछ लोग खुली मजदूरी पर निर्भर हैं। महिलाएँ घर के कामों के साथ-साथ निंदाई-कटाई के सीजन में आसपास के बड़े किसानों के खेतों पर मजदूरी करती हैं।


बचत समूह की मीटिंग में महिलाओं के साथ अक्सर उनके बच्चे भी आया करते हैं। महिलाओं के साथ-साथ परिवार वालों से भी पूनम भइया घुल मिल गए हैं। महीने की मीटिंग लेते समय महिलाओं से परिवार और गाँव की कई सारी बातें भी हो जाती हैं।

पूनम भइया ने गाँव के बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य की कमी पर गौर किया और गाँव की आंगनवाड़ी के बारे में पूछताछ करने लगे। तब पता चला कि मुहल्ले में आंगनवाड़ी भवन तो है, पर उसमें आंगनवाड़ी नहीं लगती। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता का घर आंगनवाड़ी भवन से दो किलोमीटर दूर है, वो इतनी दूर आना नहीं चाहती थी इसलिए मनमाने तरीके से आंगनवाड़ी का संचालन अपने घर पर करने लगी। वहाँ पर दूर होने की वजह से बच्चे और महिलाएँ नियमित रूप से नहीं जा पाते और उपयोग में नहीं होने के कारण मुहल्ले का आंगनवाड़ी भवन अड्डा बन चुका है।


“घर पर लगाने का तो नियम ही नहीं है, उनके घर पर व्यवस्थित तरीके से कैसे चला पायेंगे, आप लोगों को जो फायदा मिलना चाहिए वो पूरे तरीके से मिलता ही नहीं होगा।“ पूनम भइया ने हैरानी से कहा।


ऐसे हालात देखते हुए, पूनम भइया ने अपनी संस्था समाज प्रगति सहयोग की स्वास्थ्य और पोषण कार्यक्रम टीम को यहाँ की आंगनवाड़ी की स्थिति के बारे में बताया।

आंगनवाड़ी के संचालन के बारे में जानने के लिए सुखराम भइया और संतोष भइया गाँव आए और आंगनवाड़ी भवन भी देखने गए।


सालों से बंद पड़े आंगनवाड़ी भवन के आसपास प्लास्टिक की थैलियाँ, पत्ते, गोबर और कई तरह का कचरा फैला था। बरामदे में एक गाय बैठी जुगाली कर रही थी। दरवाजा खुला था, जिसकी कुण्डी भी नहीं थी। पैरों की आहट पाते ही अंदर से एक कुत्ता बाहर की ओर भागा। पूरे फर्श पर प्लास्टिक डिस्पोजल गिलास, फटे अखबार के टुकड़ों के साथ चिप्स और नमकीन के रंग बिरंगे खाली पैकेट फैले हुए थे। शराब की देसी-अंग्रेजी बोतलें और कांच के टुकडे़ बिखरे पड़े थे।


दो कमरों का यह भवन सरकार ने 2012-13 में ही बना दिया था। जहाँ बच्चों और गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य की देखभाल होनी चाहिए थी, उस आंगनवाड़ी भवन की यह दशा देख संतोष भइया और सुखराम भइया को दुःख हुआ। उन्हें लगा यहाँ आंगनवाड़ी व्यवस्था में सुधार लाना पड़ेगा। उन लोगों ने तुरंत बच्चों और गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य की स्थिति जानने के लिए सर्वे करना शुरू कर दिया।

घर-घर जाकर बच्चों का वजन, लंबाई और बांह की मोटाई नापी तब पता चला मुहल्ले में छः साल से कम उम्र के पैंतीस बच्चों में से हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है।


सर्वे के बाद जब गंभीर स्थिति महिलाओं को पता चली तब उनका यही बोलना था -

“भइया हमारा मुहल्ला का आंगनवाड़ी भवन में ही आंगनवाड़ी लगवाना है, ताकि गर्भवती बाई हुन के टीका आसानी से लग जाए और पोषण आहार लेने दो किलोमीटर दूर पीपलकोटा नी जानू पड़ेगा।”


पिकअप गाड़ी सतवास के जोशिला रेस्टोरेंट के सामने रूकती है। मोटरसायकिल से गाड़ी के पीछे आ रहे संतोष भइया और सुखराम भइया भी इनके साथ हो गए। रेस्टोरेंट में सभी गरमा गरम चाय के साथ पोहे खाने लगे।

“दीदी आप सभी तैयार हो, अधिकारी से बात करने के लिए” संतोष भइया ने महिलाओं से पूछा।

“भइया... कभी बडे़ अधिकारी के सामने नहीं गए” संगीता दीदी ने सकुचाते हुए कहा।

”दीदी आप बिल्कुल कर सकती हैं, पूरे गाँव वालों के सामने आपने पंचायत में भी तो अपनी बात रखी थी।” चाय की आखरी चुस्की लेते हुए सुखराम भइया ने कहा।


आंगनवाड़ी को मुहल्ले के भवन में ही लगवाने के लिए लोगों ने कई बार सरपंच और सचिव से निवेदन किया था। हर बार उन्हें बस एक ही जवाब सुनने को मिलता - ”हमने तो बात आगे पहुंचा दी है।“

बचत समूह की मीटिंग में भी महिलाएँ अक्सर इसी बात का जिक्र करती थी। सुखराम भइया ने समझाया, मुंह बोली से समस्या हल नहीं हो रही है इसलिए एक साथ ग्रामसभा में जाकर लिखित आवेदन देंगे तो उस पर कार्यवाही करना उनकी मजबूरी हो जायेगी।


महिलाएँ दबी आवाज़ में एक दूसरे से बातें करने लगीं- “अपन तो कभी गया नी ग्रामसभा की मीटिंग में”

”वहाँ तो पूरा गाँव का आदमी लोग हुन आय, अपनो कई काम वहाँ?”


2 अक्टूबर 2018 की सुबह पीपलकोटा गाँव के स्कूल भवन में ग्रामसभा हुई। बडे़ से कमरे में एक टेबल और कुछ कुर्सियाँ थी जिन पर पंच बैठे थे और सरपंच जी खिड़की के पास मोबाइल में कुछ देख रहे थे। सचिव का इंतजार था और गाँव के कुछ लोग नीचे बिछी दरी पर बैठे थे। सरपंच जी खिड़की से बाहर देखकर हैरान हो गए कि मीटिंग में महिलाएँ भी आ रही हैं। देखते ही देखते कमरा भर गया। जहाँ ग्रामसभा में एक महिला नहीं आती थी, वहाँ आज छब्बीस महिलाएँ आईं हैं।


गाड़ी स्पीड बे्रकर पर उछल जाती है, भरोसी बाई चिल्ला पड़ीं “देखकर चला दादा, मारेगा क्या?”


भरोसी बाई बोलने में कभी झिझकती नहीं हैं, ग्रामसभा में भी सरपंच और सचिव से ऐसे ही बोल पड़ीं थीं।

”हमने तुमारे कई बार बतायो कि हमारा मुहल्ला में आंगनवाड़ी और पानी की दिक्कत है। तुम हमारी बात को अनसुनी कर दो, आज तो हमारी समस्या को कई न कई करनो ही पडे़गो।“


सभी महिलाओं ने मिलकर मुहल्ले के आंगनवाड़ी भवन में ही आंगनवाड़ी लगे और पानी की व्यवस्था को लेकर लिखित आवेदन सरपंच को दिया। सरपंच और सचिव ने आश्वासन देते हुए कहा कि - तीन महीने के अंदर आंगनवाड़ी का संचालन मुहल्ले के भवन में ही हो जाएगा और गर्मी आने से पहले पानी की व्यवस्था भी जरूर कर देंगे। इन्द्रा नगर के निवासी मन में उम्मीदें लिए घर लौटे।


व्यवस्था में सुधार की उम्मीद लिए लोग इंतजार करते रहे। जब एक महीने में भी कोई सुधार नहीं हुआ तब महिलाओं से रहा नहीं गया। सरपंच और सचिव जब भी मुहल्ले से गुजरते तब महिलाएँ पूछ ही लेतीं ”हमारा मुहल्ला में आंगनवाड़ी कब खोलोगा और पानी की व्यवस्था भी करोगा की नी ?“

हमेशा की तरह उन्हें एक ही जवाब मिलता था - ”हमने तो बात आगे पहुंचा दी है, सरकारी काम में टाइम तो लगता ही है।“


सर्दियां बीतीं, बसंत बीता और गर्मी आ गई, समस्या वहीं की वहीं थी। न पानी की व्यवस्था हुई और न ही आंगनवाड़ी भवन में लगी। वो भवन पहले की तरह ही नशेड़ियों का अड्डा बना रहा।


”हमने आठ महीना पहले ग्रामसभा में पानी और आंगनवाड़ी का लिए आवेदन दियो थो, अभी तक उको कई नी हुयो, अब कई करा?“ समूह मीटिंग में विनिता दीदी ने बात छेड़ी।

”दीदी, आप लोगों ने ग्राम पंचायत स्तर पर कोशिश करके देख लिया, अगर समस्या का हल नहीं हो रहा है, तो आपको कन्नौद में तहसील स्तर पर महिला एवं बाल विकास विभाग के परियोजना अधिकारी से मिलना चाहिए।“ संतोष भइया ने सलाह देते हुए कहा।


उसी शाम, पीपल के नीचे चैपाल पर, पूरा मुहल्ला एक जुट हुआ। गाँव वालों के साथ संतोष भइया और सुखराम भइया ने मिलकर आंगनवाड़ी और पानी की समस्या को लेकर दो आवेदन तैयार किए। आंगनवाड़ी के लिए आवेदन महिला एवं बाल विकास विभाग में और पानी के लिए आवेदन लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग मतलब P.H.E. में देना होगा। सभी गाँव वालों ने मिलकर तय किया कि एक घर से एक व्यक्ति जरूर जाएगा और अपने आने-जाने का खर्चा भी स्वयं उठायेगा।

महिलाओं को इकट्ठा करने की जिम्मेदारी विनिता दीदी को सौपी गई, जो किरण प्रगति समूह की कोषाध्यक्ष हैं।


बाय पास होते हुए गाड़ी कन्नौद के महिला एवं बाल विकास विभाग के कार्यालय के सामने रूकी।

”दीदियाँ, आप लोग अंदर जाकर परियोजना अधिकारी को यह आवेदन देने के साथ-साथ अपनी समस्या खुल कर जरूर बताना।” महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ाते हुए संतोष भइया ने कहा।

”सर जी, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता मनमाने तरीके से आंगनवाड़ी का संचालन अपने घर पीपलकोटा में करती है, जो हमारा मुहल्ला से दो किलोमीटर दूर है।“ विनिता दीदी ने अधिकारी से कहा।


”सर, गर्भवती महिला को टीका लगवाने में पांच मिनट लगते हैं, पर इतनी दूर आने-जाने में हमारा पूरा दिन ही चला जाता है और उस दिन हम धाड़की पर भी नहीं जा पाते।“ सोना दीदी ने आवेदन देते हुए कहा।

परियोजना अधिकारी ने बड़ी शांति से महिलाओं की बात सुनी और बोले - ”यह तो ताज्जुब करने वाली बात है, भवन होते हुए भी उसमें आंगनवाड़ी नहीं लगती। मैं आप लोगों से वादा करता हूँ, तीन-चार दिनों के अंदर ही आंगनवाड़ी मुहल्ले के आंगनवाड़ी भवन में शिफ्ट करा दूंगा। आप बेफिक्र होकर घर जाइए।“ इस तरह का जवाब पाकर महिलाएँ खुशी-खुशी बाहर आईं, इतना बड़ा काम आसानी से हो जायेगा, उन्होंने सोचा भी नहीं था।


अब बारी थी पानी की समस्या लेकर P.H.E. विभाग के ऑफिस जाने की। इस बार महिलाएँ बेझिझक ऑफिस के अंदर गईं।

”सर, हमारे मुहल्ले में पानी की इत्ती दिक्कत है कि डेढ़ किलोमीटर दूर खेतों के कूएँ से पानी लाते हैं, पानी भरने में हमारा आधा दिन चला जाता है, धाड़की पर कब जायेंगे?” भरोसी बाई ने अधिकारी से कहा।

”हमारे मुहल्ले के सड़क किनारे दबे हुए़ हैण्डपंप में मोटर डलवाओ या फिर नया बोरवेल कराओ।“ बंसती दीदी अधिकारी की टेबल पर हाथ रखते हुए बोलीं।


”आपके मुहल्ले इन्द्रा नगर में मोटर तो मार्च-अप्रैल माह में ही दे दी है, आपको नहीं पता?“ अधिकारी ने पूछा। उनकी बात सुनकर महिलाएँ और भइया सभी हैरान रह गए।

”सर हमारे मुहल्ले में मोटर लगी होती, तो हम यहाँ आपके पास क्यों आते?“ विनिता दीदी ने कहा।

अधिकारी ने सचिव को तुरंत फोन लगाया और बात करने के बाद, महिलाओं को बताया कि मोटर गाँव में ही किसी के निजी बोरवेल में चल रही है। इस पर कार्यवाही करते हुए अगले ही दिन इन्द्रा नगर में मोटर की व्यवस्था कर दी जाएगी।

महिलाएँ इसी आशा के साथ पिकअप गाड़ी से गाँव वापस आ गईं।

हर रोज की तरह महिलाएँ घर के कामों में उलझी रहती हैं। भइया लोगों को जब काम नहीं मिलता, वे पूरा दिन ताश पत्ती खेलकर बिताते हैं।


दो दिन बाद भी मोटर का कहीं अता पता नहीं था। अधिकारियों से बात करने के बाद महिलाओं की हिम्मत खुल गई थी। विनिता दीदी ने भरोसी दीदी, बंसती दीदी और सोना दीदी के साथ मिलकर P.H.E. विभाग के अधिकारी को फोन लगाया।

”सर मोटर अभी तक नहीं डली, हम क्या करें?“

अगले दिन अधिकारी ने खुद आकर अपने सामने ही सड़क किनारे दबे हैण्डपंप में मोटर डलवाई और उसे चालू करवाया। पानी की व्यवस्था होते ही पूरे मुहल्ले में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। अब इन्हें डेढ़ किलोमीटर दूर जाकर पानी के लिए खेत-खेत भटकना नहीं पडे़गा। साथ ही वे समय से धाड़की पर भी जा पायेंगे।

अब इंतजार था, आंगनवाड़ी भवन में आंगनवाड़ी लगने का।


महिला एवं बाल विकास परियोजना अधिकारी के वादे को एक सप्ताह बीत गया और भवन में आंगनवाड़ी अब भी नहीं लगी। उस खंड्हर पडे़ भवन की खिड़की का एक पलड़ा भी टूट गया।

विनिता दीदी, सोना दीदी, और संगीता दीदी गाँव के आदमियों के साथ फिर से परियोजना अधिकारी से मिलने कन्नौद गए।

“आपका काम एक सप्ताह में हो जायेगा, सरकारी काम में टाइम तो लगता ही है” परियोजना अधिकारी से जवाब मिला।


महिलाओं ने फिर एक सप्ताह इंतजार किया, अब भी आंगनवाड़ी भवन में नहीं लगी।

इंतजार करते-करते एक दिन महिलाओं के सब्र का बांध टूट गया और सोना दीदी ने परियोजना अधिकारी को फोन लगाकर बेधड़क कहा -”सर एक महीना हो गया, आपसे कुछ नहीं हो रहा है, तो हम आगे देवास जायेंगे।“

”बस और कुछ दिनों की मोहलत दे दो।“ अधिकारी का जवाब आया।


छः सालों से खंड्हर पड़े आंगनवाड़ी भवन की मरम्मत होने लगी। साफ-सफाई और रंगाई-पुताई के लिए गाँव के लोगों को ही मजदूरी मिल गई। वे लोग जो काम न मिलने पर ताश पत्ती खेलकर पूरा दिन बिताते थे, उनको भी उन दिनों आंगनवाड़ी भवन में ही काम मिल गया था। रंगाई-पुताई से आंगनवाड़ी भवन चमक उठा।

महिलाएँ बहुत खुश हो गईं। उन्होंने एक साल पहले जो आवाज़ उठाई थी और जितनी मेहनत की थी वो रंग लाई। आज इस भवन में बच्चों की किलकारियाँ गूंज रही हैं। महिलाओं ने यह ठान लिया कि गाँव के कुपोषित बच्चों के स्वास्थ्य की कमी को दूर करेंगे, साथ ही गर्भवती महिलाओं का ख्याल रखेंगे, ताकि आने वाली पीढ़ी भी स्वस्थ हो।

 

Story writers: Jyoti Garhewal Lasar , Sandip Bhati, Iqbal Hussain

Mentor & Guide: Pinky Brahma Choudhury

Sound Mixing: Pradeep Lekhwar

Painting: Maya Janine D'costa


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