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किरण दीदी

अपडेट करने की तारीख: 11 अक्तू॰ 2021



मुझे स्कूल जाने से नफ़रत हो गई थी, मानो पढ़ाई से मेरा नाता टूट सा गया हो। स्कूल का नाम सुनते ही चिढ़ आने लगती थी। मैं जब पाँचवी कक्षा में थी, तब शारीरिक कमज़ोरियों की वजह से मेरे सिर के सारे बाल झड़ चुके थे। इस कारण स्कूल में बच्चे मुझे एक अलग ही नज़रिये से देखते थे और हँसकर मज़ाक उडा़ते थे। रोज़-रोज़ के इस बर्ताव से मैं अन्दर से पूरी तरह टूट चुकी थी। एक दिन मैंने स्कूल छोड़ने का निर्णय ले लिया।


उस समय घर की स्थिति भी ठीक नहीं थी। चार भाई-बहनों में, मैं सबसे बड़ी थी। मम्मी-पापा रोज़ सुबह आठ से दस किलोमीटर दूर जंगल में जाकर अंजन की पत्तियाँ और सूखी लकड़ियाँ लाकर बड़वाह बाज़ार में बेचते थे। पत्तियाँ 12 आने और लकड़ी 2 रू किलो में बिकती थी, जिससे हम घर चला लेते थे।


पापा को काम करते देख मैं भी जंगल से सूखी लकड़ियाँ लाकर बाज़ार में बेचने लगी। थोड़े समय बाद मैंने लोगों के घरों में बर्तन धोना भी शुरू किया और साथ-साथ थोड़ा बहुत सिलाई का काम भी लेने लगी। इतना सब करके भी ज्यादा कमाई नहीं हो पाती थी। उस समय सोचती थी कि काश मैं लड़का होती तो घर खर्च की और जिम्मेदारी उठा पाती।


काम करते-करते समय बीतता गया और उम्र शादी लायक हो गई। सन् 2004 में परिवार की पसंद से, एक सरकारी नौकरी करने वाले लड़के से मेरी शादी कर दी गई। उनकी कलेक्टर ऑफिस में चपरासी की नौकरी थी और पहली पत्नी के तीन बच्चे थे। महीने-दो-महीने तो परिवार को समझने में ही बीत गये। पर कहते हैं कि इंसान के गुणों की परख तो उसके साथ रहकर ही पता चलती है। पति अपनी पूरी तन्ख़्वाह खा-पीकर शराब में उड़ा देते थे और रोज़-रोज़ गाली-गलौज भी किया करते थे।


मेरी सास नहीं चाहती थी कि मेरा अपना भी कोई बच्चा हो। उनको डर था कि ऐसा होने से उन तीनों बच्चों के प्रति मेरा रवैय्या बदल जायेगा। लेकिन मैंने उन बच्चों को कभी भी महसूस नहीं होने दिया कि मैं उनकी सौतेली माँ हूँ।

जब सास को पता चला कि मैं गर्भवती हूँ, तब मेरे प्रति उनका व्यवहार बदल गया, अब वो बात-बात पर मुझसे चिल्लाचोट करने लगीं। पति से तो पहले ही उम्मीद खो बैठी थी, आए दिन सास के भी इस बर्ताव के कारण मैंने एक दिन ससुराल छोड़ने का मन बना लिया। सिहोर से सीधा अपने मायके बड़वाह आ गई।


मैंने सोच लिया, ”अब उस घर वापस कभी नहीं जाऊँगी।” उस समय मेरा बच्चा पेट में छः महीने का ही था। मम्मी और काकी समझाती थीं, “क्या करेगी? अकेले पहाड़ जैसी ज़िन्दगी नहीं कटती, ज़्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं है जो अकेले रहकर पेट भर लेगी?“


उस दौरान बड़वाह में समाज प्रगति सहयोग संस्था का काम शुरू हुआ। संस्था के कार्यकर्ता हमारे गवली मुहल्ले में आये और लोगों को स्वयं सहायता समूह कार्यक्रम के बारे में बताने लगे। उन्हें काम करने के लिए कार्यकर्ताओं की ज़रूरत थी। वहीं खड़ी मेरी बहन की सहेली रानी सब बातें सुन रही थी। चर्चा होने के बाद उसने कहा, “मेरी दीदी है, जिन्हें काम की ज़रूरत है।“ रानी के साथ अनिमेष भइया और अजय भइया मेरे घर आये और उन्होंने मुझे काम के बारे में बताया। उस समय मेरा बेटा पीयूष मात्र 11 महीने का ही था। मैंने उसकी तरफ़ देखा और सोचा कि इसके लिए तो माँ, बाप दोनों मैं ही हूँ। यही सोचकर मैंने काम करने के लिए हाँ कर दी और दूसरे दिन बड़वाह ऑफिस इंटरव्यू देने चली गई।


वहाँ और भी लोग इंटरव्यू के लिए आए थे। हम सभी को एक पर्चा दिया गया। उसे पढ़कर मुझे ज़्यादा कुछ समझ नहीं आया। जो आया, लिख दिया और घर वापस आ गई। घर में माँ ने पूछा, “क्या हुआ?“ मैंने उदास मन से कहा, “मेरा तो नहीं होगा।“ कुछ दिनों बाद अजय भइया और रीना दीदी हमारे घर आये। मेरे हाथ में एक लिफाफा देते हुए बोले, “किरन दीदी, आप सिलेक्ट हो गये हो, दो दिन के बाद आपकी ट्रेनिंग शुरू हो जाएगी।“ अब क्या बताऊँ, भगवान एक दरवाज़ा बन्द करता है, तो दूसरा खोलता भी है। उस ख़ुशी को मैं शब्दों में कैसे बया करूँ?


हम दस-बारह लोगों की 22 दिनों तक बड़वाह ऑफिस में ट्रेनिंग हुई। हमको एक-एक बैग दिया गया जिसमें कैल्क्युलेटर और कुछ रजिस्टर थे। ट्रेनिंग में समूह की नियमावली, समूह बनाना, ब्याज निकालना, डिमांड शीट बनाना, समूह की कार्यवाही, रसीद भरना, सदस्य को बचत के लिए प्रोत्साहित करना और समूह का व्यवस्थित रिकार्ड रखना आदि के बारे में समझाया गया। इतने भारी-भरकम शब्द सुनकर दिमाग भी भारी हो जाता था। ट्रेनिंग में ज़्यादातर जोड़-घटाव और गुणा-भाग के बारे में सिखाया गया, जो मुझे कम ही समझ में आया। इस दौरान मैंने पहली बार कैल्क्युलेटर पकडा और उसे चलाना भी सीखा। ट्रेनिंग पूरी होने के बाद अजय भइया ने कहा, “आप लोगों ने जो कुछ भी सीखा उसके बारे में कल बताइयेगा।“


उस रात मेरे मन में ट्रेनिंग की ही बातें चलती रहीं। मैं बड़ी उलझन में थी कि अगर इकट्ठा करे पैंसो में से ही लोन दे दिया, उनसे ही खर्च निकाला और उन्हीं पैंसो से हाथ की राषि भी बच गई, तो कैसे बच गई। मन में ऐसेे कई सवाल उठ रहे थे। मैंने अपने भाई से कहा, “तुम तो पढे़-लिखे हो, मेरी मदद कर दो।“ उसने कहा, “समझने तो तुम जाती हो, मैं कैसे समझाऊँ?“


सुबह बैग में सामान डालकर मैं सीधे ऑफिस पहुँच गई। अजय भइया कुछ काम कर रहे थे, मैंने झिझक के साथ उन्हें बैग थमाया और कहा, “भइया, ये काम मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, मैं नहीं कर पाऊँगी।“ उन्होंने मुझे बिठाया और षांति से पूछा, “दीदी, आप क्यों नहीं कर पायेंगी? क्या समझ में नहीं आया?“ मैंने उनको बताया कि समूह का इतना हिसाब-किताब करना मेरे बस की बात नहीं है। अजय भइया ने कहा, “इस काम को सीखने में थोड़ा समय लगता है, धीरे-धीरे आप सीख जायेंगी।“


अजय भइया मुझे तीन-चार समूहों की मीटिंग में लेकर गए। वहाँ उन्होंने समझाया कि किस तरह डिमांड शीट भरते हैं और हाथ की राषि किसे कहते हैं। मुझे लगा कि मैं ये काम शायद धीरे-धीरे सीख जाऊँगी।


हमें उन महिलाओं के साथ काम करना था जो आर्थिक रूप से कमजोर थीं। उस समय उनमें से किसी को नहीं पता था कि समूह किस चिड़िया का नाम है। जब मैं समूह में जुड़ने की बात करती थी तो उन्हें मेरी बातों पर बिल्कुल भी विष्वास नहीं होता था। जैसे-तैसे सन् 2006 में मैंने अपने ही मुहल्ले के जान-पहचान के लोग और रिश्तेदारों को जोड़कर अपना पहला समूह बनाया। उसका नाम ’हरदोल लाला प्रगति समूह’ रखा गया।


समूह बनाने के लिए दूर-दूर तक पैदल चलना पड़ता था। इस दौरान मैंने बड़वाह की हर काॅलोनी छान मारी। गर्मी के दिनों में धूल और पसीने से पैरों में चप्पल के निषान तक पड़ जाते थे। पैर रात भर दर्द से चटकारे मारते थे। महिलाएँ दिन में धाड़की-मजदूरी करने जाती थीं और शाम को घरेलू कामकाज में उलझी रहती थीं। मैं, अपनी काकी के साथ, रात में भी घर-घर जाकर महिलाओं से समूह में जुड़ने की बात किया करती थी।

बड़ी मुष्किल से दषहरा मैदान की आठ-दस महिलाओं को जोड़कर, मैंने एक और समूह बनाया जिसमें सभी महिलाओं ने दस-दस रूपये देकर बचत की शुरूआत की। मैं जब दूसरी बार उस समूह में मीटिंग लेने गई, तो महिलाएँ इकट्ठा ही नहीं र्हुइं। जिनके घर पर मीटिंग होनी थी, उस महिला ने बताया, “बइण उ तो लय गई न सब उनका पइसा इता रूपया म होय काई।“ सारी महिलाओं ने पहले ही अपने-अपने पैंसे वापिस ले लिए थे। उस समय समूह बनाना मतलब कुआँ ख़ोदकर पानी पीने के बराबर था।


समूह टूटने से मैं काफी निराश हो गई। जब मैं घर पर अकेली बैठी रहती थी तब मम्मी-पापा पास आकर कहते थे, “एक टूटा तो क्या, दूसरा बन जाएगा।“ उनकी बातों से मुझे हिम्मत मिली और समूह बनाने के लिए मैं फिर से चल पड़ी।


एक दिन मैं जयंती माता मुहल्ले पहुँची। यहाँ लोग छोटे-मोटे धंधे और मज़दूरी करके अपनी रोजी-रोटी चलाते थे। उनको हमेशा पैंसो की तंगी लगी रहती थी। वे लोग ज़रूरत पड़ने पर सेठ-बनियों से पैसे उधार लेते थे और महीने का 5-10 रूपये सैकड़े के हिसाब से ब्याज देते थे। मैंने उनको बताया, “आपको समूह से महीने का डेढ़ रूपये सैकड़े के ब्याज से लोन मिलेगा जिसे आप अपनी सुविधानुसार आसान किश्तों में भर सकते हो। दो-ढ़ाई महीनों के लगातार प्रयास के बाद, महिलाएँ समूह से जुड़ने के बारे में सोचने लगीं। फिर उन्होंने मिलकर ’जयंती माता प्रगति समूह’ बनाया।

धीरे-धीरे और भी महिलाओं के साथ मेरा रिश्ता गहरा होता गया। आज मैं 340 महिला सदस्यों से बने 19 समूहों को संभाल रहीं हूँ।

पहले समूह की मीटिंग महीने में एक बार लेनी होती थी। इसका हिसाब-किताब रजिस्टरों में लिखना पड़ता था जिसमें काफ़ी समय लग जाता था। कभी-कभी महिलाएँ ताना मारा करतीं थीं, “काय दा जीजी तमरा पास तो या हिसाब करनई मशीन छे फिर भी इतरी देर लगइ रा।“ सदस्य एक-दूसरे का मुँह देखकर मुझ पर हँसा करते थे। वह भी एक दौर था जो गुज़र गया, अब तो आसानी से कैल्क्युलटेर से हिसाब-किताब कर लेती हूँ।


अब एक समूह की मीटिंग महीने में दो बार होती हैं। इसलिए संस्था ने हमें लैपबुक से मीटिंग लेने केे लिए कहा। जब इस बारे में पता चला, तब मन में आया, “बाप रे! उसको कैसे चलाऊँगी?“ संस्था के द्वारा लैपबुक चलाने की ट्रेनिंग दी गई। जब पहली बार बटनों पर हाथ चलाया तो सही बटनों पर उंगलियाँ ही नहीं गईं। माऊस के तीर को बायें ले जाऊँ, तो दायें चले जाए, ऊपर ले जाऊँ, तो नीचे चले आए। कभी लैपबुक की पट्टी में तीर छुप जाए तो मैं उसे स्क्रीन पर ढूँढती रहूँ। पर अब तो उसी से मीटिंग लेना अच्छा लगता है, समय की बचत हो जाती है और गलतियाँ भी नहीं होती हैं। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं ऐसा भी कोई काम कर पाऊँगी। पढ़ाई तो मात्र पाँचवी तक ही की थी, जो आज के समय में ना के बराबर है।


समूह की दीदियों का स्नेह, परिवार और संस्था के कार्यकर्ताओं का सहयोग और अपनी लगन के बलबूते पर मैं इस काबिल बन पाई हूँ कि आज मैं अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा कर पा रहीं हूँ।


मेरा बेटा पीयूष आज 9वीं कक्षा में पढ़ रहा है। उसकी बेहतर पढाई के लिए मैं सालाना 25 से 30 हजार रूपये खर्च कर रहीं हूँ। मैंने उसे कभी भी पिता की कमी महसूस नहीं होने दी। बेटे की परवरिश के साथ-साथ मैं मम्मी-पापा का भी ख़्याल रख पा रहीं हूँ इसलिए वे मुहल्ले और रिश्तेदारों के सामने बडे़ गर्व से कहते हैं कि किरण बेटी नहीं बेटा है।


पर वे ऐसा क्यों कहते हैं? हर रोज़ कन्धे पर बैग टाँगे मैं उन महिलाओं से मिलने जाती हूँ जो मुझे यह काम करने की प्रेरणा देती हैं। वे भी मुझ जैसे ही हैं, जिम्मेदारियाँ निभा रहीं हैं।



पहले मैं सोचतीं थी कि काश मैं लड़का होती... पर आज मुझे समझ आ गया है कि लड़का होना ज़रूरी नहीं है, मैं लड़की हूँ और मैं यह कर सकती हूँ।

 

Story writers: Roshni Chouhan, Pradeep Lekhwar, Sandip Bhati, Iqbal Hussain and Laxminarayan Devda

Sound design: Milind Chhabra and Pradeep Lekhwar

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