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नाश्ते का ठेला

अपडेट करने की तारीख: 11 अक्तू॰ 2021



"अरे रुको रुको रुको! चटनी रखना तो भूल ही गयी।"

देवी दीदी मोटर साइकिल से उतरतीं हैं और घर के अंदर चली जाती हैं।

थोड़ी देर में हाथ में चटनी का डिब्बा लिए वे वापस बाहर आती हैं, जल्दी से मोटर साइकिल पर बैठती हैं और पति-पत्नी हर रोज़ की तरह अपना नाश्ते का ठेला लगाने के लिए निकल पड़ते हैं।


रास्ते में मुर्गा सेंटर पड़ता है। "अभी तक किसी ने मुर्गे की दूकान नहीं खोली?" देवी दीदी हीरालाल भैया से पूछने ही वाली होती हैं कि उन्हें खांसी आ जाती है। जब तक खांसी रूकती है तब तक वे टावरबैड़ी मुहल्ले में नीम के पेड़ के नीचे पहुँच जाते हैं, जहाँ वे हर रोज़ अपना ठेला लगाते हैं। बसंत की शुरुआत हो गयी है, ठेले के आसपास और उसके ऊपर लगी टिन की चद्दर पर नीम के छोटे सफ़ेद फूल गिरे हुए हैं। देवी दीदी ठेले के पीछे लगी घुमटी खोलती हैं और हीरालाल भैया ठेले की सफाई में लग जाते हैं। कुछ ही देर में मुहल्ले की चहल-पहल भी शुरू हो जाती है।


बड़वाह शहर का टावरबैड़ी मुहल्ला कच्चे-पक्के मकानों की एक बस्ती है। यहाँ के मुर्गा मार्केट, किराना की छोटी- बड़ी दुकानों, सड़क किनारे बैठे मछली बेचने वालों और हर थोड़ी देर में आते-जाते सब्ज़ी, रद्दी, चूड़ी और भंगार बेचते ठेले वालों की वजह से यहाँ हमेशा शोरगुल सा रहता है। इन सब के बीच देवी दीदी और हीरलाल भैया का इकलौता नाश्ते का ठेला है जहाँ कचौड़ी, समोसा, भजिया और जलेबी मिलती है।


पति-पत्नी हर रोज़ सुबह 5 बजे उठकर नाश्ते की तैयारी में लग जाते हैं। यह तैयारी एक तालमेल में होती है। एक तरफ दीदी आलू उबालने रखती हैं, तो दूसरी तरफ भैया कचौड़ी का मसाला तैयार कर रहे होते हैं। फिर जब भैया आलू छीलने लगते हैं तो दीदी इमली की चटनी बनाने में लग जाती हैं। इनके बच्चे कमलेश और रितिका भी इस काम में इनका हाथ बटाते हैं। बस सबसे छोटी बेटी शांता आराम से अपने समय के हिसाब से ही उठती है। सामान तैयार होते- होते साढ़े सात- आठ बज जाते हैं और पति-पत्नी बस एक कप चाय पीकर ठेले के लिए निकल पड़ते हैं।


अभी, ठेले के ऊपर रखे काँच के बक्से में देवी दीदी कचौड़ियाँ जमा रहीं हैं। हीरालाल भैया समोसे तल रहे हैं। इसके बाद वे जलेबियाँ भी बनाएंगे।

मुहल्ले में स्कूल ड्रेस पहने बच्चे और धाड़की-धंधे के लिए जाते कई लोग अपने-अपने घरों से निकलते हुए दिखाई देते हैं। इस समय नाश्ते के ठेले पर भी ग्राहकों का आना-जाना शुरू हो जाता है। इन्हीं में से एक ग्राहक हीरा लाल भैया से बातचीत करने लगता है।

“राम-राम हीरा लाल भाई!"

“राम-राम“

“समोसे बन गए?“

“बैठो।“ ग्राहक ठेले के बायीं ओर रखे स्टूल पर बैठ जाता है और हीरा लाल भैया को काम करते हुए देखने लगता है।

“अरे भैया, तुमने सुना क्या? चीन से कोई बीमारी आई है!“

“हम्म“

“सुना है मुर्गों से फैल रही है। देशभर में लोगों ने मुर्गा खाना छोड़ दिया है।“

हीरा लाल भैया कुछ नहीं कहते।

“अरे भैया, यहीं देख लो? मुर्गे तो आलू के भाव बिक रहे हैं।“

इतनी देर में देवी दीदी अख़बार के एक टुकड़े में गर्म-गर्म समोसा लाकर ग्राहक को पकड़ा देतीं हैं। बोलने वाले का पूरा ध्यान अब समोसा खाने में लग जाता है और हीरालाल भैया जलेबियाँ बनाने की तैयारी करने लगते हैं।

एक छेद किये हुए कपड़े में मैदे का घोल भरते हैं और गर्म तेल से भरी कढ़ाई में गिराते जाते हैं। हाथ और कलाई में ऐसा तालमेल होता है कि कढ़ाई में हर जलेबी एक ही आकार की बनती है। कब कढ़ाई जलेबियों से भर जाती है, पता ही नहीं चलता।


हीरालाल भैया यह काम बहुत समय से करते आ रहे हैं। बचपन में होटलों में कप-प्लेट धोने का काम करते थे, थोड़े बड़े हुए तो इन्होंने हलवाई का हुनर सीख लिया। घर की ज़मीन कम थी और गाँव में अच्छा रोज़गार न मिलने के कारण वे परिवार सहित अपना गाँव ठीकरी छोड़कर बड़वाह शहर आ गए। यहाँ इन्हें कुछ समय बाद बस-स्टैंड के पास एक होटल में काम मिल गया। दिन में 12 घंटे काम करने पर इन्हें सिर्फ 80 रुपये मिलते थे। यहाँ 20 साल काम करने के बाद भी इन्हें दिन के बस 200 रुपये ही मिल रहे थे। आए-दिन सेठ से होती नोक-झोक और कम पगार मिलने की वजह से उनका होटल का काम छोड़कर अपना धंधा खोलने का कई बार मन किया पर घर में इतने पैसे नहीं थे कि वे ऐसा कर सकें।


ग्राहक का समोसा अब न्यूस पेपर के टुकड़े से गायब हो चुका है। वह देवी दीदी को पाँच रूपये का एक सिक्का पकड़ाता है और काम को निकल जाता है।


सुबह की सुनहरी धूप धीरे-धीरे कड़क दोपहरी में बदल जाती है। इस समय कम ही लोग आते हैं। घर पर बेटी रितिका ने खाना बना ही लिया होगा, यह सोचकर हीरालाल भैया बाइक से घर चले जाते हैं। अब ठेले को देवी दीदी अकेले ही संभाल रहीं हैं।


दीदी स्टूल पर बैठ जाती हैं।

"मुर्गा मार्केट वालों के घर कैसे चल रहे होंगे? अपना ठेला तो एक दिन भी बंद हो जाए, तो मुश्किल ही आजाये। रोज़ की 400- 500 रुपये कमाई से ही तो घर का गुज़ारा होता है।"

अपनी साड़ी के पल्लू से मुँह को ढकती हैं और हल्का सा खांस लेती हैं। उन्हें यह खांसी पिछले कुछ सालों से हो रही है।


उस समय वे बड़वाह की एक चूना भट्टी में काम करती थीं। यहाँ चूने के पत्थरों को फावड़े से तगारी में भर-भर कर मशीन में डालना पड़ता था और पिसा हुआ चूना बड़ी-बड़ी बोरियों में भरना होता था। पूरा दिन, चूना कमरे में सफेद धुएं की तरह उड़ता रहता था। दीदी के हाथ-पैर पर चूना चिपक जाता था, चमड़ी फट जाती थी और हाथ में छाले पड़ जाते थे। खाना खाते समय अगर हाथ में हल्की सी भी सब्जी लग जाए तो जलन से जान निकल जाती थी। यह सब करके भी दिन की 100 रूपये ही धाड़की मिलती थी।

यहाँ कुछ साल काम करने के बाद, देवी दीदी को हल्की-हल्की खांसी होना शुरू हो गयी। आँखें बहुत जलनें लगीं और आये दिन सर दर्द होने लगा। एक दिन, तबियत इतनी खराब हो गयी कि उन्हें काम छोड़ना पड़ गया। डाक्टर ने बोला कि उन्हें आराम की जरूरत है, तो कुछ दिन देवी दीदी ने कुछ काम नहीं किया। पति वैसे भी काम से परेशान थे, ऊपर से देवी दीदी को जो दिन के 100 रुपये मिलते थे, वो भी बंद हो गए, इस वजह से हीरालाल भैया चिड़चिड़े रहने लगे। देवी दीदी को भी अब लगने लगा कि अगर अपना धंधा होता तो कितना बढ़िया रहता।


"कचौड़ी मिलेगी दीदी?"

देवी दीदी सर ऊपर करके देखती हैं कि उनकी महिला बचत समूह की संचालिका मितान रेहाना दीदी उनके सामने खड़ी हैं।


“कहाँ खो गई थी?“

“अरे कुछ नहीं दीदी! आज की मीटिंग पूरी हो गई?“ देवी दीदी ने पूछा।

“सुबह से दो मीटिंग ले चुकी हूँ, शाम तक तीसरी भी हो जाएगी।", रेहाना दीदी स्टूल पर बैठते हुए कहतीं हैं।

हर बार की तरह, देवी दीदी रेहाना दीदी के लिए चार कचौड़ियाँ और इमली की चटनी पैक करने लग जाती हैं।

“दीदी, आज एक ग्राहक कोई बीमारी के बारे में बता रहा था"

“हव, पेपर में लिखा था कोई वायरस है"

"वायरस? मुर्गे से फ़ैल रहा है क्या?"

"सुनने में तो आया है दीदी, पता नहीं।"

"अच्छा" देवी दीदी रेहाना दीदी को कचौड़ियों से भरी थैली पकड़ा देती हैं।

रेहाना दीदी जाते-जाते कहती हैं, "आप क्यों चिंता करती हो दीदी? अपने यहाँ तो अभी कुछ सुनने में आया ही नहीं।"


देवी दीदी कुछ नहीं कहती।


हीरा लाल भैया बेटे कमलेश के साथ वापस ठेले पर आ गये हैं। अब दोपहर के एक बज रहे हैं। भैया स्टूल पर बैठ जाते हैं और कमलेश चुपचाप कचौड़ी में मसाला भरने लग जाता है। वह भी अपने पिता की तरह ही दुबला-पतला है, पर उसके हाथों में अभी हीरा लाल भैया जैसा हुनर और तेज़ी नहीं आयी है।

देवी दीदी पैदल घर की ओर निकल पड़ती हैं। मुर्गा सेंटर पार करते हुए देखती हैं कि अब वहाँ की दुकाने खुल तो गयी हैं पर हर रोज़ जैसी भीड़ नहीं लगी है।


"शाम को मुर्गा सेंटर से कितने ग्राहक अपने ठेले पर आकर भजिये खाते हैं! लगता है आज अपनी भी बिक्री कम ही होगी।"

"इतनी मेहनत से तो ग्राहक बंधे हैं, शुरुआत में तो गिने-चुने ही लोग आते थे।"


तब देवी दीदी को चूना भट्टी छोड़े एक महीना हो चुका था, उनकी तबियत भी अब कुछ ठीक होने लगी थी। पति-पत्नी कुछ दिनों से अपना धंधा खोलने का सोच रहे थे, इसके बारे में देवी दीदी ने रेहाना दीदी से राय भी ली थी। उन्होंने देवी दीदी से कहा कि उन्हें अपना नाश्ते का ठेला खोलना चाहिए । हीरालाल भैया को काम तो पूरा आता ही था, बस कुछ पैसों की ज़रूरत थी।


एक शाम, दीदी बिस्तर पर लेटी आराम कर रही थी कि हीरालाल भैया घर आये और एकदम से बताने लगे, "एक दुकानदार अपना काँच का बक्सा बेच रहा है, ले लूँ?"

"ठेला कहाँ से लोगे?"

"पानी-पूरी वाला 6000 रुपये में बेचेगा।"

"ठीक है, मैं समूह में बात करती हूँ कि लोन मिलेगा कि नहीं।"

देवी दीदी ने अपने उजाला प्रगति समूह के सामने 20000 रुपये के लोन की मांग रखी। कुछ सालों पहले इन्होंने नए घर के लिए एक लोन लिया था, जिसकी किश्ते वे समय से भर रहीं थीं। समूह की महिलाओं ने यह देखते हुए इन्हें ठेले के लिए भी लोन देने का निर्णय लिया। 20000 रुपये में फिर देवी दीदी ने ठेला, काँच का बक्सा, बर्तन और नाश्ते का सामान खरीद लिया। कुछ दिनों बाद, पति-पत्नी टॉवरबैड़ी मुहल्ले में नीम के पेड़ के नीचे अपना नाश्ते का ठेला लगाने लगे।


कुछ समय में, देवी दीदी घर पहुँच जाती हैं। उनका घर एक कमरे का है। उसके बगल में टिन का एक छप्पर है, जिसके नीचे एक खाट पड़ी रहती है और खाना बनाने के लिए एक भट्टी बनाई हुई है। घर के अंदर, रितिका टीवी पर एक पिक्चर देख रही है। उसकी उम्र कुछ 16 - 17 साल की है। उसने आठवीं के बाद घर की ज़िम्मेदारियों की वजह से स्कूल जाना छोड़ दिया था। तब से वह घर पर ही रहती है और घर के कामों में हाथ बटाती है। देवी दीदी एक थाली में सेव टमाटर की सब्ज़ी और रोटी लेकर रितिका के साथ आकर बैठ जातीं हैं और टीवी देखते-देखते खाने लगती हैं।


खाना खाने के बाद देवी दीदी घर के कामों में व्यस्त हो जाती हैं- पानी भरना, बर्तन माँजना और कपड़े धोना। कब 4 बज जाते हैं पता ही नहीं लगता। ये सब करके देवी दीदी पंखे के नीचे आराम करने बैठती ही हैं कि उनकी सबसे छोटी बेटी शांता घर धमक पड़ती है। 10 साल की शांता खेल कर वापस आयी है, पसीने में लत-पथ है, स्कूल ड्रेस भी गन्दी हो गयी है। मटके से गिलास में पानी भरती है और गटागट पीने लग जाती है।

"छोरी! ड्रेस निकाल! कल स्कूल नहीं जाना?" दीदी कहती हैं।

"स्कूल की तो छुट्टी लग गयी! मैडम ने बोला है कोई बीमारी आ गयी है।"

देवी दीदी के और कुछ पूछने से पहले ही शांता वापस बाहर भाग जाती है। दीदी रितिका को देखने लगती है, वह अभी भी TV देख रही है।


थोड़े समय में देवी दीदी ठेले के लिए सब्ज़ी-आलू खरीदने सब्ज़ी बाज़ार की तरफ़ निकल पड़ती हैं। "पता नहीं यह और कौन सी नयी बीमारी है? हर कोई यही बात कर रहा है!" दीदी यहीं सब सोचती रहती हैं।


वे देखती हैं कि बाज़ार में तो भीड़ पहले से ज़्यादा ही है। लोग मज़े में पानी-पूरी, छोला-टिक्की खा रहे हैं। बहुत लोग गन्ने का जूस और शर्बत भी पी रहे हैं।

"हम्म, हो सकता है अपने ठेले पर भी ग्राहक आ ही जायेंगे"


एक-डेढ़ घंटों में दीदी अपना सामान खरीद लेती हैं और वापस घर लौट जाती हैं।

अब शाम के 7 बज रहे हैं।

देवी दीदी और रितिका रात के खाने की तैयारी में लग जाते हैं। थोड़े समय में कमलेश और हीरा लाल भैया घर आ जाते हैं। देवी दीदी उनसे दिन भर की कमाई के बारे में पूछती हैं। कमलेश उन्हें चुपचाप पैसे निकाल के दे देता है।

दीदी पैसों को गिनती हैं- 930 रुपये।

"खर्चा निकाल दें तो 400-500 तो बचेंगे। चलो इस बीमारी से अपने ऊपर तो असर नहीं पड़ा। अपने ग्राहक तो आज भी आये।"


9 बजे रितिका खाना लगा देती है और सभी टी.वी. देखते हुए खाने लगते हैं। टी.वी. पर प्रधानमन्त्री जी का भाषण चल रहा होता है।

(मोदी एक दिन का जनता कर्फ्यू अनाउन्स करते हुए)


भाषण ख़त्म होते ही देवी दीदी कहती हैं, "तो रविवार के दिन ठेला बंद रखना पड़ेगा?"

"हम्म। शनिवार फिर सब्जी मत लाना", हीरालाल भैया कहते हैं।

"क्यों? भारत बंद तो एक ही दिन का है न?"

हीरालाल भैया कुछ नहीं कहते।

थोड़ी देर में रितिका टी वी चैनल चेंज करके कोई पिक्चर लगा देती है, कमलेश और हीरालाल भैया बाहर छप्पर के नीचे बिछी खाट पर बैठ जाते हैं और शांता देवी दीदी के पास जाकर सो जाती है।

देवी दीदी को जल्दी नींद नहीं आती।


"यह भारत बंद एक ही दिन होगा न?"

"बार-बार हुआ तो अपना ठेला कैसे चलेगा?"

 

Story writers: Pradeep Lekhwar, Milind Chhabra and Sameer Rangrej

Sound Mixing: Iqbal Hussain

Painting: Maya Janine D'costa

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